महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 95 श्लोक 39-53
पञ्चनवतितम (95) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)
भरतभूषण ! आपको ही पांडवों की सदा रक्षा करनी चाहिये । विशेषत: संकट के अवसर पर तो आपके लिए उनकी रक्षा अत्यंत आवश्यक है ही । कहीं ऐसा न हो कि पांडवों से वैर बाँधने के कारण आपके धर्म और अर्थ दोनों नष्ट हो जायें । राजन् ! पांडवों ने आपको प्रणाम करके प्रसन्न करते हुए यह संदेश कहलाया है – 'तात ! आपकी आज्ञा से अनुचरों सहित हमने भारी दुख सहन किया है। 'बारह वर्षों तक हमनें निर्जन वन में निवास किया है और तेरहवाँ वर्ष जनसमुदाय से भरे हुए नगर में अज्ञात रहकर बिताया है। 'तात ! आप हमारे ज्येष्ठ पिता हैं, अत: हमारे विषय में की हुई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहेंगे ( अर्थात् वनवास से लौटने पर हमारा राज्य हमें प्रसन्नतापूर्वक लौटा देंगे )- ऐसा निश्चय करके ही हमने वनवास और अज्ञातवास की शर्त को कभी नहीं तोड़ा है, इस बात को हमारे साथ रहे हुए ब्राह्मणलोग जानते हैं। 'भरतवंशशिरोमणे ! हम उस प्रतिज्ञा पर दृढ़तापूर्वक स्थित रहे हैं; अत: आप भी हमारे साथ की हुई अपनी प्रतिज्ञा पर डटे रहें । राजन् ! हमने सदा क्लेश उठाया है; अब हमें हमारा राज्यभाग प्राप्त होना चाहिये। 'आप धर्म और अर्थ के ज्ञाता हैं; अत: हम लोगों की रक्षा कीजिये । आप में गुरुत्व देखकर – आप गुरुजन हैं, यह विचार करके ( आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए ) हम बहुत-से क्लेश चुपचाप सहते जा रहे हैं; अब आप भी हमारे ऊपर माता-पिता की भांति स्नेहपूर्ण बर्ताव कीजिये। 'भारत ! गुरुजनों के प्रति शिष्य एवं पुत्रों का जो बर्ताव होना चाहिये, हम आपके प्रति उसी का पालन करते हैं । आप भी हम लोगों पर गुरुजनोंचित स्नेह रखते हुए तदनुरूप बर्ताव कीजिये। 'हम पुत्रगण यदि कुमार्ग पर जा रहे हों तो पिता के नाते आपका कर्तव्य है कि हमें सन्मार्ग में स्थापित करें । इसलिए आप स्वयं धर्म के सुंदर मार्ग पर स्थित होइए और हमें भी धर्म के मार्ग पर ही लाइये'। 'भरतश्रेष्ठ ! आपके पुत्र पांडवों ने इस सभा के लिए भी यह संदेश दिया है – 'आप समस्त सभासद्गण धर्म के ज्ञाता हैं । आपके रहते हुए यहाँ कोई अयोग्य कार्य हो, यह उचित नहीं है । 'जहां सभासदों के देखते-देखते अधर्म के द्वारा धर्म का और मिथ्या के द्वारा सत्य का गला घोंटा जाता हो, वहाँ वे सभासद नष्ट हुए माने जाते हैं।'जिस सभा में अधर्म से विद्ध हुआ धर्म प्रवेश करता है और सभासद्गण उस अधर्मरूपी कांटे को काटकर निकाल नहीं देते हैं, वहाँ उस काटें से सभासद ही विद्ध होते हैं ( अर्थात उन्हें ही अधर्म से लिप्त होना पड़ता है ) । जैसे नदी अपने तट पर उगे हुए वृक्षों को गिराकर नष्ट कर देती है, उसी प्रकार वह अधर्मविद्ध धर्म ही उन सभासदों का नाश कर डालता है' । 'भरतश्रेष्ठ ! जो पांडव सदा धर्म की ओर ही दृष्टि रखते हैं और उसी का विचार करके चुपचाप बैठे हैं, वे जो आपसे राज्य लौटा देने का अनुरोध करते हैं, वह सत्य, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है। जनेश्वर ! आपसे पांडवों का राज्य लौटा देने के सिवा दूसरी कौनसी बात यहाँ कही जा सकती है । इस सभा में जो भूमिपाल बैठे हैं, वे धर्म और अर्थ का विचार करके स्वयं बतावें, मैं ठीक कहता हूँ या नहीं । पुरुषरत्न ! आप इन क्षत्रियों को मौत के फंदे से छुड़ाइये।
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