महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-19
दशम (10) अध्याय: कर्ण पर्व
कर्ण को सेनापति बनाने के लिये अश्वत्थामा का प्रस्ताव और सेनापति के पद पर उसका अभिषेक
संजय ने कहा - भरतनन्दन महाराज ! उस दिन जब महाधनुर्धर द्रोणाचार्य मारे गये, महारथी द्रोण पुत्र का संकल्प व्यर्थ हो गया और समुद्र के समान विशाल कौरवउ सेना भागने लगी, उस समय कुनती कुमार अर्जन अपनी सेना का व्यूह बनाकर अपने भाइयों के साथ रण भूमि में डटे रहे। भरत श्रेष्ठ ! उन्हें युद्ध के लिये डटा हुआ जान आपके पुत्र ने अपनी सेना को भागती देख उसे पराक्रम पूर्वक रोका। भारत ! इस प्रकार अपनी सेना को स्थापित करके, जिन्हें अपना लक्ष्य प्राप्त हो गया था और इसलिये जो बड़े हर्ष के साथ परिश्रम पूर्वक युद्ध कर रहे थे, उन विपक्षी पाण्डवों के साथ दुर्योधन ने अपने ही बाहुबल के भरोसे दीर्धकाल तक युद्ध करके संध्याकाल आने पर सैनिकों को शिविर में लौटने की आज्ञा दे दी। सेना को लौटाकर अपने शिविर में प्रवेश करने के पश्चात् समस्त कौरव परस्पर अपने हित के लिये गुप्त मन्त्रणा करने लगे ।
उस समय वे सब लोग बहुमूल्य बिछौनों से युक्त मूल्यवान् पलंगों तथा श्रेष्ठ सिंहासनों पर बैठे हुए थे, मानो सुचाद शय्याओं पर विराज रहे हों। उस समय राजा दुर्योधन ने सान्त्वना पूर्ण परम मधुर वाणी द्वारा उन महाधनुर्धर नरेशों को सम्बोधित करके यह समयोचित बात कही - ‘बुद्धिमानों में श्रेष्ठ नरेश्वरों ! तुम सब लोग शीघ्र बोला, विलम्ब न करो, इस अवस्था में हम लोगों को क्या करना चाहिये और सबसे अधिक आवश्यक कर्तव्य क्या है ?’ संजय कहते हैं - राजा दुर्योधन के ऐसा कहने पर वे सिंहासन पर बैठे हुए पुरुषसिंह नरेश युद्ध की इच्छा से नाना प्रकार की चेष्टाएँ करने लगे । युद्ध में प्राणों की आहुति देने की इच्दा रखने वाले उन नरेशों की चेष्टाएँ देखकर राजा दुर्योधन के प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी मुख की ओर दृष्टिपात करके वाक्य विशारद , मेधावी आचार्य पुत्र अयवत्थामा ने यह बात कही -वि,ानों अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने वाले चार उपाय बताये हैं - राग ( राजा के प्रति सैनिको की भक्ति ), योग ( साधन - सम्पत्ति ), दक्षता ( उत्साह, बल एवं कौशल ), तथा नीति; परंतु वे सभी दैव के अधीन हैं। ‘हमारे पक्ष में जो देवताओं के समान पराक्रमी, विश्वविख्यात महारथी वीर, नीतिमान्, साधन सम्पन्न, दक्ष और स्वामी के प्रति अनुरक्त थे, वे सब - के - सब मारे गये, तथापि हमें अपनी विजय के प्रति निराश नहीं होना चाहिये।
यदि सारे कार्य उत्तम नीति के अनुसार किये जायँ तो उनके द्वारा दैव को भी अलुकूल किया जा सकता है; अतः भारत ! हम लोग सर्वगुण सम्पन्न नरश्रेष्ठ कर्ण का ही सेनापति के पद पर अभिषेक करेंगे और इन्हें सेनापति बनाकर हम लोग शत्रुओं को मथ डालेंगे। ‘ये अत्यन्त बलवान्, शूरवीर, अस्त्रों के ज्ञाता, रण दुर्मद और सूर्यपुत्र यमराज के समान शत्रुओं के लिये असह्य हैं। इसलिये ये रण भूमि में हमारे विपक्षियों पर विजय पा सकते हैं’। राजन् ! उस समय आचार्य पुत्र अश्वत्थामा के मुख से यह बात सुनकर आपके पुत्र दुर्योधन ने कर्ण के प्रति विशेष आशा बाँध ली। भरतनन्दन ! भीष्म और द्रोणाचार्य के मारे जाने पर कर्ण पाण्डवों को जीत लेगा, इस आशा को हृदय में रखकर दुर्योधन को बड़ी सान्त्वना मिली। महाराज ! वह अश्वत्थामा के उस प्रिय वचन को सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ।
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