महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-19

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एकसप्ततितम (71) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व:एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन से भगवान श्रीकृष्‍ण का उपदेश, अर्जुन और युधि‍ष्ठिर का प्रसन्‍नतापूर्वक मिलन एवं अर्जुन द्वारा कर्णवध की प्रतिज्ञा, युधिष्ठिर का आशीर्वाद संजय कहते हैं– महाराज ! धर्मराज के मुख से यह प्रेमपूर्ण वचन सुनकर यदुकुल को आनन्दित करने वाले धर्मात्‍मा गोविन्‍द अर्जुन से कुछ कहने लगे । अर्जुन श्रीकृष्‍ण के कहने से युधिष्ठिर के प्रति जो ति‍रस्‍कार पूर्ण वचन बोले थे, इसके कारण वे मन ही मन ऐसे उदास हो गये थे, मानो कोई पाप कर बैठे हों। उनकी यह अवस्‍था देख भगवान् श्रीकृष्‍ण हँसते हुए से उन पाण्‍डु कुमार से बोले– ‘पार्थ ! तुम तो राजा के प्रति केवल ‘तू’ कह देने मात्र से ही इस प्रकार शोक में डूब गये हो । फिर यदि धर्म में स्थित रहने वाले धर्मकुमार युधिष्ठिर को तीखी धारवाले तलवार से मार डालते, तब तुम्‍हारी दशा कैसी हो जाती ? ‘कुन्‍ती नन्‍दन तुम राजा का वध करने के पश्चात क्‍या करते ? इस तरह धर्म का स्‍वरूप सभी के लिये दुर्विज्ञेय है । विशेषत: उन लोगों के लिये, जिनकी बुद्धि मन्‍द है, उसके सूक्ष्‍म स्‍वरूप को समझना अत्‍यन्‍त कठिन है । अतः तु धर्मभीरू होने के कारण अपने ज्‍येष्ठ भाई के वध से निश्चय ही घोर नरकरूप महान् अन्‍धकार (दु:ख) में डूब जाते ।इसीलिये इस विषय में मेरा विचार यह है कि तुम धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ धर्मपरायण कुरूश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर को प्रसन्‍न करो ।
राजा युधिष्ठिर को भक्ति भाव से प्रसन्‍न कर लो । जब वे प्रसन्‍न हो जायँ, तब हमलोग तुरंत ही युद्ध के लिये सूतपुत्र के रथ पर चढ़ाई करेंगे । मानद ! आज तुम तीखे बाणों से समर भूमि में कर्ण का वध करके धर्मपुत्र युधिष्ठिर के ह्रदय में अत्‍यन्‍त हर्षोल्‍लास भर दो । महाबाहो ! मुझे तो इस समय यहाँ यही करना उचित जान पड़ता है । ऐसा कर लेने पर तुम्‍हारा सारा कार्य सम्‍पन्‍न हो जायेगा ।महाराज ! तब अर्जुन लज्जित हो धर्मराज के चरणों में गिरकर मस्‍तक नवाकर उन भरतश्रेष्ठ नरेश से बारंबार बोले – राजन् ! प्रसन्‍न होइये, प्रसन्‍न होइये । मैंने धर्म पालन की इच्‍छा से भयभीत होकर जो अनुचित वचन कहा है, उसके लिये क्षमा कीजि‍ये । भरत श्रेष्ठ ! धर्मराज युधिष्ठिर ने शत्रुसूदन, भाई धनंजय को अपने चरणों पर गिरकर रोते देख बड़े स्‍नेह से उठाकर ह्रदय से लगा लिया । फिर वे भूपाल धर्मराज भी फूट-फूटकर रोने लगे । महाराज ! वे दोनों महातेजस्‍वी भाई दीर्घकाल तक रोते रहे । इससे उनके मन की मैल धुल गयी और वे दोनो भाई परस्‍पर प्रेम से भर गये । तदनन्‍तर अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो बारंबार मुस्‍कराते हुए पाण्‍डु कुमार धर्मराज युधिष्ठिर ने महाधर्नुधर धनंजय को बड़े प्रेम से ह्रदय से लगाकर उनका मस्‍तक सूँघा और उनसे इस प्रकार कहा । महाधर्नुधर ! महाबाहो ! मैं युद्ध में यत्‍नपूर्वक लगा हुआ था, किंतु कर्ण ने सारी सेना के देखते देखते अपने बाणों द्वारा मेरे कवच, ध्‍वज, धनुष, शक्ति, घोड़े और बाणों के टुकड़े-टुकड़े कर डालें हैं ।फाल्‍गुन ! रणभूमि में उसके इस कर्म को देख और समझकर मैं दु:ख से पीडि़त हो रहा हूँ । मुझे अपना जीवन प्रिय नहीं रह गया है ।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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