महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 71 श्लोक 20-40
एकसप्ततितम (71) अध्याय: कर्ण पर्व
यदि आज युद्धस्थल में तुम वीर कर्ण का वध नहीं करोगे, तो मैं अपने प्राणों का ही परित्याग कर दूँगा । फिर मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है ? भरतश्रेष्ठ ! उनके ऐसा कहने पर अर्जुन ने उत्तर दिया – राजन् ! नरश्रेष्ठ महीपाल ! मैं आप से सत्य की, आपके कृपापूर्ण प्रसाद की, भीमसेन की तथा नकुल और सहदेवक की शपथ खाकर सत्य के द्वारा अपने धनुष को छूकर कहता हूँ कि आज समर में या तो कर्ण को मार डालूगाँ या स्वयं ही मारा जाकर पृथ्वी पर गिर जाऊँगा । राजा युधिष्ठिर से ऐसा कहकर अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से बोले- श्रीकृष्ण ! आज रणभूमि में मैं कर्ण का वध करूँगा, इसमें संशय नहीं है । आपका कल्याण हो । आपकी बुद्धि से ही उस दुरात्मा का वध होगा । नृपश्रेष्ठ ! उनके ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- भरतश्रेष्ठ ! तुम महाबली कर्ण का वध करने में समर्थ हो । सत्पुरूषों में श्रेष्ठ महारथी वीर ! मेरे मन में भी सदा यही इच्छा बनी रहती है कि तुम रणभूमि में कर्ण को किसी तरह मार डालो । फिर बुद्धिमान भगवान् माधव ने धर्मनन्दन युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- महाराज ! आप अर्जुन को सांत्वना और दुरात्मा कर्ण के वध के लिये आज्ञा प्रदान करें । पाण्डुनन्दन ! राजन ! आप कर्ण के बाणों से बहुत पीडित हो गये हैं – यह सुनकर मैं और ये अर्जुन दोनों आपका समाचार जानने के लिये यहाँ आये थे ।
निष्पाप नरेश ! सौभाग्य की बात है कि (कर्ण के द्वारा) न तो आप मारे गये और न पकड़े ही गये। अब आप अर्जुन को सांत्वना दें और उन्हें विजय के लिये आशीर्वाद प्रदान करें। युधिष्ठिर बोले- कुन्तीनन्दन ! वीभत्सो ! आओ, आओ ! पाण्डुकुमार ! मेरे ह्रदय से लग जाओ । तुमने तो मेरे प्रति कहने योग्य और हित की ही बात कही है तथा मैंने उसके लिये क्षमा भी कर दी। धनंजय ! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, कर्ण का वध करो । पार्थ ! मैंने जो तुमसे कठोर वचन कहा है, उसके लिये खेद न करना । संजय कहते हैं – माननीय नरेश ! तब धनंजय ने
मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और दोनों हाथों से बड़े भाई के पैर पकड़ लिये । तत्पश्चात राजा ने मन ही मन पीड़ा का अनुभव करने वाले अर्जुन को उठाकर छाती से लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर पुन: उनसे इस प्रकार कहा-। महाबाहु धनंजय ! तुमने मेरा बड़ा सम्मान किया है; अत: तुम्हारी महिमा बढ़े और तुम्हें पुन: सनातन विजय प्राप्त हो । अर्जुन बोले – महाराज ! आज मैं अपने बल का घमंड रखने वाले उस पापाचारी राधापुत्र कर्ण को रणभूमि में पाकर उसके सगे सम्बन्धियों सहित मृत्य के समीप भेज दूँगा । राजन ! जिसने धनुष को दृढ़तापूर्वक खींचकर अपने बाणों द्वारा आपको पीडित किया है, वह कर्ण आज अपने उस पापकर्म का अत्यन्त भयंकर फल पायेगा। भूपाल ! आज मैं कर्ण को मारकर ही आपका दर्शन करूँगा और युद्धस्थल से आपका अभिनन्दन करने के लिये आऊँगा । यह मैं आपसे सत्य कहता हूँ । पृथ्वीपते ! आज मैं कर्ण को मारे बिना समरागंण से नहीं लौटूँगा । इस सत्य के द्वारा मैं आपके दोनों चरण छूता हूँ । संजय कहते हैं– राजन् ! ऐसी बातें कहने वाले किरीटधारी अर्जुन से युधिष्ठिर ने प्रसन्नचित्त होकर यह महत्त्वपूर्ण बात कही- वीर ! तुम्हें अक्षय यश, पूर्ण आयु, मनोवांछित कामना, विजय तथा शत्रुनाशक पराक्रम– ये सदा प्राप्त होते रहें । जाओ, देवता तुम्हें अभ्युदय प्रदान करें । मैं तुम्हारे लिये जैसा चाहता हूँ, वैसा ही सब कुछ तुम्हें प्राप्त हो । आगे बढ़ो और युद्धस्थल में शीघ्र ही कर्ण को मार डालो । ठीक उसी तरह, जैसे देवराज इन्द्र ने अपने ही ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये वृत्रासुर का नाश किया था ।
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