महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 72 श्लोक 21-38
द्विसप्ततितम (72) अध्याय: कर्ण पर्व
तुम्हार पास दिव्य अस्त्र है, तुममें फुर्ती है, बल है, युद्ध के समान तुम्हें घबराहट नहीं होती, तुम्हें अस्त्र-शस्त्रों का विस्तुत ज्ञान है तथा लक्ष्य को बेधने तथा गिराने की कला ज्ञात है । अर्जुन ! लक्ष्य को वेधते समय तुम्हारा चित्त एकाग्र रहता है । गन्धर्वों सहित सम्पूर्ण देवताओं तथा चराचर प्राणियों को तुम एक साथ मार सकते हो
कुन्तीकुमार ! इस भूमण्डल पर दूसरा कोई पुरूष तुम्हारे समान योद्धा नहीं है । यहाँ से देवलोक तक धनुष धारण करने वाले जो कोई भी रणदुर्मद क्षत्रिय हैं, उनमें से किसी को भी मैं तुम्हारे समान न तो देखता हूँ और न सुनता ही हूँ। पार्थ ! ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण प्रजा की सृष्टि की है और उन्होनें ही उस विशाल धनुष गाण्डीव की भी रचना की है, जिसके द्वारा तुम युद्ध करते हो; अत: तुम्हारी समानता करने वाला कोई नहीं है । पाण्डुनन्दन ! तो भी जो बात तुम्हारे लिये हितकर हो, उसे बता देना मैं आवश्यक समझता हूँ । महाबाहो ! संग्राम में शोभा पाने वाले कर्ण की अवहेलना न करना ।क्योंकि मैं कर्ण बलवान्, अभिमानी, अस्त्रविद्या का विद्वान, महारथी, युद्धकुशल, विचित्र रीति से युद्ध करने वाला तथा देशकाल को समझने वाला है। पाण्डुनन्दन ! इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ, संक्षेप से ही सुन लो । मैं महारथी कर्ण को तुम्हारे समान या तुमसे भी बढ़कर मानता हूँ । अत: महासमर में महान् प्रयत्न करके तुम्हें उसका वध करना होगा । कर्ण तेज में अग्नि के सदृश, वेग में वायु के समान, क्रोध में यमराज के तुल्य, सुदृढ़, शरीर में सिंह के सदृश तथा बलवान् है ।
उसके शरीर की ऊँचाई आठ रत्नि (एक सौ अड़सठ अंगुल) है । उसकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी और छाती चौड़ी हैं । उसे जीतना अत्यन्त कठिन है । वह अभिमानी, शौर्यसम्पन्न, प्रमुख वीर और प्रियदर्शन (सुन्दर) है । उसमें योद्धाओं के सभी गुण हैं । वह अपने मित्रों को अभय देने वाला है तथा दुर्योधन के हित में तत्पर रहकर पाण्डवों से सदा द्वेष रखता है । मेरा तो ऐसा विचार है कि राधापुत्र कर्ण तुम्हें छोड़कर इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी अवध्य है; अत: तुम आज सूतपुत्र का वध करो। समस्त देवता भी यदि रक्त-मांसयुक्त शरीर को धारण करके युद्ध की अभिलाषा लेकर विजय के लिये प्रयत्नशील हो रणभूमि में आ जाएँ तो उनके लिये रथसहित कर्ण को जीतना असम्भव है । अत: आज तुम दुरात्मा, पापाचारी, क्रूर, पाण्डवों के प्रति सदा दुर्भावना रखने वाले और किसी स्वार्थ के बिना ही पाण्डव विरोध में तत्पर हुए कर्ण का वध करके सफल मनोरथ हो जाओ । रथियों में श्रेष्ठ सूतपुत्र अपने को काल के वश में नहीं समझता है । तुम उसे आज ही काल के अधीन कर दो । रथियों में श्रेष्ठ सूतपुत्र कर्ण को मारकर धर्मराज युधिष्ठिर को प्रसन्न करो । पार्थ ! मैं तुम्हारे उस बल पराक्रम को अच्छी तरह जानता हूँ, जिसका निवारण करना देवताओं और असुरों के लिये भी कठिन है । दुरात्मा सूतपुत्र कर्ण घमंड में आकर सदा पाण्डवों का अपमान करता है । धनंजय ! जिसके साथ होने से पापी दुर्योधन अपने को वीर मानता है, वह सूतपुत्र कर्ण ही सारे पापों की जड़ है; अत: आज तुम उसे मार डालो
अर्जुन ! कर्ण पुरूषों में सिंह के समान है, तलवार ही उसकी जिह्वा है, धनुष ही उसका फैला हुआ मुख है, बाण उसकी दाढ़े हैं, वह अत्यन्त वेगशाली और अभिमानी है । तुम उसका वध करो । जैसे सिंह मतवाले हाथी को मार डालता है, उसी प्रकार तुम भी अपने बल और पराक्रम से रणभूमि में शूरवीर कर्ण को मार डालो । इसके लिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ। पार्थ ! जिसके बल से दुर्योधन तुम्हारे बल पराक्रम की अवहेलना करता है, उस वैकर्तन कर्ण को आज तुम युद्ध में मार डालो ।
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