महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 73 श्लोक 107-125
त्रिसप्ततितम (73) अध्याय: कर्ण पर्व
जो सारी पाण्डव सेना को अकेले ही अपने बाण समूहों द्वारा लपेट लेते थे, उन भीष्म जी का सामना करके भी पांचाल योद्धा कभी युद्ध से मुँह मोड़कर नहीं भागे । वे ही महारथी वीर कर्ण को सामने पाकर कैसे भाग सकते हैं ? । मित्रवत्सल ! जो वीर द्रोणाचार्य प्रतिदिन अकेले ही सम्पूर्ण पांचालो का विनाश करते हुए पांचालों की रथ सेना में काल के समान विचरते थे, अस्त्रों की आग से प्रज्वलित होते थे, सम्पूर्ण धनुर्धरों के गुरू थे और समरांगण में शत्रु सेना को दग्ध किये देते थे, अपने बल और पराक्रम से दुर्घर्ष उन द्रोणाचार्य को भी संग्राम में सामने पाकर वे पांचाल अपने मित्र पाण्डवों के लिये सदा डटकर युद्ध करते रहे । शत्रुदमन अर्जुन ! पांचाल सैनिक युद्ध में सदा शत्रुओं को जीतने के लिये उद्यत रहते हैं । वे सूतपुत्र कर्ण से भयभीत हो कभी युद्ध से मुँह नहीं मोड़ सकते । जैसे आग अपने पास आये हुए पतंगो के प्राण ले लेती है, उसी प्रकार शूरवीर कर्ण बाणों द्वारा अपने ऊपर आक्रमण करने वाले वेगशाली पांचालों के प्राण ले रहा है । भरतश्रेष्ठ ! देखो, वे पांचाल योद्धा दौड़ रहे हैं । निश्चय ही कर्ण और दूसरे दूसरे योद्धा उन्हें दौड़ा रहे हैं । देखो, वे कैसी बुरी अवस्था में पड़ गये हैं । जो अपने मित्र के लिये प्राणों का मोह छोड़कर शत्रु के सामने खडे़ होकर जूझ रहे हैं, उन सैकड़ों पांचालवीरो को कर्ण रणभूमि में नष्ट कर रहा है । भारत ! कर्णरूपी अगाध महासागर में महाधनुर्धर पांचल बिना नाव के डूब रहे हैं । तुम नौका बनकर उनका उद्धार करो । कर्ण ने मुनिश्रेष्ठ भृगुनन्दन परशुराम जी से जो महाघोर अस्त्र प्राप्त किया है, उसी का रूप इस समय प्रकट हो रहा है । वह अत्यन्त भयंकर एवं घोर भार्गवास्त्र पाण्डवों की विशाल सेना को आच्छादित करके अपने तेज से प्रज्वलित हो सम्पूर्ण सैनिकों को संतप्त कर रहा है । ये संग्राम में कर्ण के धनुष से छूटे हुए बाण भ्रमरों के समूहों की भाँति चलते और तुम्हारे योद्धाओं को संतप्त करते हैं । भरतनन्दन ! जिन्होनें अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं कर रखा है, उनके लिये कर्ण के अस्त्र को रोकना अत्यन्त कठिन है । समरांगण में इसकी चाट खाकर ये पांचाल सैनिक सम्पूर्ण दिशाओं में भाग रहे हैं । पार्थ ! दृढ़तापूर्वक क्रोध को धारण करने वाले ये भीमसेन सब ओर से सृंजयों द्वारा घिरकर कर्ण के साथ युद्ध करते हुए उसके पैने बाणों से पीडित हो रहें हैं । भारत ! जैसे प्राप्त हुए रोग की चिकित्सा नकी गयी तो वह शरीर को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार यदि कर्ण की उपेक्षा की गयी तो वह पाण्डवों, सृंजयों और पांचालों का भी नाश कर सकता है । युधिष्ठिर की सेना में तुम्हारे सिवा दूसरे किसी योद्धा को ऐसा नहीं देखता, जो राधापुत्र कर्ण का सामना करके कुशलपूर्वक घर लौट सके । नरश्रेष्ठ ! पार्थ ! आज तुम अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तीखे बाणों से कर्ण का वध करके उज्जवल कीर्ति प्राप्त करो । योद्धाओं में श्रेष्ठ ! केवल तुम्हीं संग्राम में कर्ण सहित सम्पूर्ण कौरवों को जीत सकते हो, दूसरा कोई नहीं । यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ । पुरूषोत्तम पार्थ ! अत: महारथी कर्ण को मारकर यह महान् कार्य सम्पन्न करने के पश्चात तुम कृतसत्य, सफल मनोरथ एवं सुखी हो जाओ ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत कर्णपर्व में श्रीकृष्णवाक्य विषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ
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