महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 90 श्लोक 12-25

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नवतितम (90) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: नवतितम अध्याय: श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद

राजन् ! उस समय घमासान युद्ध में जब रथ, घोडे़ और हाथियों द्वारा सारा भूतल रौंदा जा रहा था, उस समय पाताल निवासी अश्वसेन नामक नाग, जिसने अर्जुन के साथ वैर बाँध रखा था और जो खाण्डवदाह के समय जीवित बचकर क्रोधपूर्वक इस पृथ्वी के भीतर घूस गया था; कर्ण तथा अर्जुन का वह संग्राम देखकर बडे़ वेग से ऊपर को उछला और उस युद्धस्थल में आ पहुँचा; उसमें ऊपर को उड़ने की भी शक्ति थी। नरेश्वर ! वह यह सोचकर कि दुरात्मा अर्जुन के वैर का बदला लेने के लिये यही सबसे अच्छा अवसर है, बाण का रूप धारण करके कर्ण के तरकस में घूस गया । तदनन्तर अस्त्रसमूहों के प्रहार से भरा हुआ वह युद्धस्थल ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो वहाँ किरणों का जाल बिछ गया हो। कर्ण और अर्जुन ने अपने बाण समूहों की वर्षा से आकाश में तिलभर भी अवकाश नहीं रहने दिया। वहाँ बाणों का एक महाजाल-सा बना हुआ देखकर कौरव और सोमक सभी भय से थर्रा उठे। उस अत्यन्त घोर बाणान्धकार में उन्हें दूसरा कुछ भी गिरता नहीं दिखायी देता था। तदनन्तर सम्पूर्ण विश्व के विख्यात धनुर्धर वीर पुरूषसिंह कर्ण और अर्जुन प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते करते थक गये। उस समय आकाश में खड़ी हुई अप्सराओं ने दिव्य चँवर डुलाकर उन दोनों को चन्दन के जल से सींचा। फिर इन्द्र और सूर्य ने अपने कर-कमलों से उनके मूँह पोंछे। जब किसी तरह कर्ण युद्ध में अर्जुन से बढ़कर पराक्रम न दिखा सका और अर्जुन ने अपने बाणों की मार से उसे अत्यन्त संतप्त कर दिया, तब बाणों के आघात से सारा शरीर क्षत-विक्षत हो जाने के कारण वीर कर्ण ने उस सर्पमुख बाण के प्रहार का विचार किया।
उत्तम बलशाली कर्ण ने अर्जुन को मारने के लिये ही जिस सुदीर्धकाल से सुरक्षित रख छोड़ा था, सोने के तरकस में चन्दन के चूर्ण के अंदर जिसे रखता था और सदा जिसकी पूजा करता था, उस शत्रुनाशक, झुकी हुई गाँठ वाले, स्वच्छ, महातेजस्वी, सुसंचित, प्रज्वलित एवं भयानक सर्पमुख बाण को उसने धनुषपर रखा और कानतक खींचकर अर्जुन की ओर संधान किया। कर्ण युद्ध में सव्यसाची अर्जुन का मस्तक काट लेना चाहता थ। उसका चलाया हुआ वह प्रज्वलित बाण ऐरावतकुल में उत्पन्न अश्वसेन ही था। उस बाण के छूटते ही सम्पूर्ण दिशाओं सहित आकाश जाज्वल्यमान हो उठा। सैकड़ों भयंकर उल्काएँ गिरने लगीं। धनुषपर उस नाग का प्रयोग होते ही इन्द्रसहित सम्पूर्ण लोकपाल हाहाकार कर उठे। सूतपुत्र को भी यह मालूम नहीं था कि मेरे इस बाण में योगबल से नाग घूसा बैठा है।। सहस्त्रनेत्रधारी इन्द्र उस बाण में सर्प को घूसा हुआ देख यह सोचकर शिथिल हो गये कि अब तो मेरा पुत्र मारा गया। तब मन को वश में रखने वाले श्रेष्ठभाव कमलयोनि ब्रह्माजी ने उन देवराज इन्द्र से कहा-देवेश्वर ! दुखी न होओ। विजय श्री अर्जुन को ही प्राप्त होगी। उस समय महामनस्वी मद्रराज शल्य ने कर्ण को उस भयंकर बाण का प्रहार करने के लिये उद्यत देख उससे कहा-कर्ण ! तुम्हारा यह बाण शत्रु के कण्ठ में नहीं लगेगा; अतः सोच-विचारकर फिर से बाण का संधान करो, जिससे वह मस्तक काट सके।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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