महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 143 श्लोक 47-62

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त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 47-62 का हिन्दी अनुवाद

मैं और महात्मा भगवान श्रीकृष्ण आपको यह आज्ञा देते हैं कि आप उशीनर-पुत्र शिबि के समान पुण्यात्मा पुरुषों के लोकों में जायं। भगवान श्रीकृष्ण बोले-निरन्तर अग्निहोत्र द्वारा यजन करने वाले भूरिश्रवाजी ! मेरे जो निरन्तर प्रकाशित होने वाले निर्मल लोक हैं और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी जहां जाने की सदैव अभिलाषा रखते हैं, उन्हीं लोकों में आप शीघ्र पधारिये और मेरे ही समान गरुड़ की पीठ पर बैठकर विचरने वाले होइये। संजय कहते हैं-राजन ! सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा के छोड़ देने पर शिनि-पौत्र सात्यकि उठकर खड़े हो गये। फिर उन्होंने तलवार लेकर महामना भूरिश्रवा का सिर काट लेने का निश्चय किया। शल के बड़े भाई प्रचुर दक्षिणा देने वाले भूरिश्रवा सर्वथा निष्पाप थे। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उनकी बांह काटकर उनका वध-सा ही कर दिया था और इसीलिये वे आमरण अनशन का निश्चय लेकर ध्यान आदि अन्य कार्यो में आसक्त हो गये थे। उस अवस्था में सात्यकि ने बांह कट जाने से सूंड़ कटे हाथी के समान बैठे हुए भूरिश्रवा को मार डालने की इच्छा की। उस समय समस्त सेना के लोग चिल्ला चिल्लाकर सात्यकि की निन्दा कर रहे थे। परंतु सात्यकि की मनोदशा बहुत बुरी थी। भगवान श्रीकृष्ण तथा महात्मा अर्जुन भी उन्हें रोक रहे थे। भीमसेन, चक्ररक्षक युधामन्यु और उत्तमौजा, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, वृषसेन तथा सिंधु-राज जयद्रथ भी उन्हें मना करते रहे, किंतु समस्त सैनिकों के चीखने-चिल्लाने पर भी सात्यकि ने उस व्रतधारी भूरिश्रवा का वध कर ही डाला। रणभूमि में अर्जुन ने जिनकी भुजाकाट डाली थी तथा जो आमरण उपवास का व्रत लेकर बैठे थे, उन भूरिश्रवा पर सात्यकि ने खडंग का प्रहार किया और उनका सिर काट लिया।। अर्जुन ने पहले जिन्हें मार डाला था, उन कुरुश्रेष्ठ भूरिश्रवा का सात्यकि ने जो वध किया, उनके उस कर्म से सैनिकों ने उनका अभिनन्दन नहीं किया। युद्ध में प्रायोपवेशन करने वाले, इन्द्र के समान पराक्रमी भूरिश्रवा को मारा गया देख सिद्ध , चारण, मनुष्य और देवताओं ने उनका गुणगान किया; क्योंकि वे भूरिश्रवा के कर्मो से आश्चर्यचकित हो रहे थे। आपके सैनिकों ने सात्यकि के पक्ष और विपक्ष में बहुत-सी बातें कही। अन्त में वे इस प्रकार बोले-इसमें सात्यकि का कोई अपराध नहीं है। होनहार ही ऐसी थी। इसलिये आपलोगों को अपने मन में क्रोध नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्रोध ही मनुष्यों के लिये अधिक दुःखदायी होता है। वीर सात्यकि के द्वारा ही भूरिश्रवा मारे जाने वाले थे। विधाता ने युद्धस्थल में ही सात्यकि को उनकी मृत्यु निश्चित कर दिया था; इसलिये इसमें विचार नहीं करना चाहिये।

सात्यकि बोले-धर्म का चोला पहनकर खड़े हुए अधर्मपरायण पापात्माओ ! इस समय धर्म की बातें बनाते हुए तुम लोग जो मुझसे बारंबार कह रहे हो कि ‘न मारो,न मारो’ उसका उत्तर मुझसे सुन लो। जब तुम लोगों ने सुभद्रा के बालक पुत्र अभिमन्यु को युद्ध में शस्त्रहीन करके मार डाला था, उस समय तुम्हारा धर्म कहां चला गया था ? मैंने तो पहले से ही यह प्रतिज्ञा कर रखीहै कि जिसके द्वारा कभी भी मेरा तिरस्कार हो जायगा अथवा जो संग्रामभूमि में मुझे पटक कर जीतेजी रोषपूर्वक मुझे लात मारेगा, वह शत्रु मुनियों के समान मौनव्रत लेकर ही क्यों न बैठा हो, अवश्य मेरा वध होगा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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