महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 164-181
षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों पुरूष सिंहों तथा अश्वत्थामा का वह अत्यन्त उग्र और महान् युद्ध समस्त योद्धाओं का हर्ष बढा रहा था। तदनन्तर एक हजार रथ, तीन सौ हाथी और छः हजार घुडसवारों के साथ भीमसेन उस युद्धस्थल में आये। उस समय अनायास ही पराक्रम प्रकट करनेवाला धर्मात्मा अश्वत्थामा भीमपुत्र राक्षस घटोत्कच तथा सेवकों-सहित धृष्टद्युम्नके साथ अकेला ही युद्ध कर रहा था। भारत ! वहां द्रोणपुत्र ने अत्यन्त अद्रुत पराक्रम दिखाया, जिसे कर दिखाना समस्त प्राणियों में दूसरे के लिये असम्भव था। उसने पलक मारते-मारते अपने पैंने बाणों से घोडे, सारथि, रथ और हाथियों सहित राक्षसों की एक अक्षौहिणी सेना का संहार कर दिया। भीमसेन, घटोत्कच, धृष्टद्युम्न, नकुल, सहदेव, धर्मपुत्र युधिष्ठिर, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण के देखते-देखते यह सब कुछ हो गया। शीघ्रतापूर्वक आगे बढनेवाले नाराचों की गहरी चोट लाकर बहुत-से हाथी शिखरयुक्त पर्वतों के समान धराशायी हो गये। हाथियों के झुण्ड कटकर इधर-उधर छटपटा रहे थे। उनसे ढकी हुई पृथ्वी रेंगते हुए सर्पो से आच्छादित हुई-सी शोभा पा रही थी। इधर-उधर गिरे हुए सुवर्णमय दण्डवाले राजाओं के छत्रों से छायी हुई यह पृथ्वी प्रलयकाल में उदित हुए सुर्य, चन्द्रमा तथा ग्रहनक्षत्रों से परिपूर्ण आकाश के समान जान पडती थी। अश्वत्थामा ने यु़द्धस्थल में खून की नदी बहा दी, जो शोणित के प्रवाह से अत्यन्त भयंकर प्रतीत होती थी, जिसमें कटकर गिरी हुई विशाल ध्वजाएं मेढकों के समान और रणभेरियां विशाल कछुओं के सदृश जान पडती थी।
राजाओं के श्वेत छत्र हंसों की श्रेणी के समान उस नदी का सेवन करते थे। चंवरसमूह फेन का भ्रम उत्पन्न करते थे। कंक और गीध ही बडे बडे ग्राह-से जान पडते थे। अनेक प्रकार के आयुध वहां मछलियों के समान भरे थे। विशाल हाथी शिलाखण्डों के समान प्रतीत होते थे। मरे हुए घोडे वहां मगरों के समान व्याप्त थे। गिरे पडे हुए रथ उंचे-उंचे टीलों के समान जान पडते थे। पताकाएं सुन्दर वृक्षों के समान प्रतीत होती थी। बाण ही मीन थे। देखने में वह बडी भयंकर थी। प्राप्त, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्र डुण्डुभ सर्प के समान थे। मज्जा और मांस ही उस नदी में महापड के समान प्रतीत होते थे। तैरती हुई लाशें नौका का भ्रम उत्पन्न करती थी। केशरूपी सेवारों से वह रंग-बिरंगी दिखायी दे रही थी। वह कायरों की मोह प्रदान करनेवाली थी। गजराजों, घोडों और योद्धाओं के शरीरों का नाश होने से उस नदी का प्राकटय हुआ था। योद्धाओं की आर्तवाणी ही उसकी कलकल ध्वनि थी। उस नदीसे रक्त की लहरें उठ रही थी। हिंसक जन्तुओं के कारण उसकी भंयकरता और भी बढ गयी थी। वह यमराज के राज्यरूपी महासागर में मिलने वाली थी। राक्षसों का वध करके बाणों द्वारा अश्वत्थामा ने घटोत्कच को अत्यन्त पीडित कर दिया। फिर उस महाबली वीर ने अत्यन्त कुपित होकर अपने नाराचों से भीमसेन और धृष्टद्युम्न सहित समस्त कुन्तीकुमारों को घायल करके द्रुपदपुत्र सुरथ को मार डाला। तत्पश्चात् उसने रणक्षेत्र में द्रुपदकुमार शत्रुंजय, बलानीक, जयानीक और जयाश्व को भी मार गिराया।
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