महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 156 श्लोक 140-163
षट्पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
समराडणों में किसी से न डरनेवाले तथा क्रोध से लाल नेत्रोंवाले भयंकर पराक्रमी सैकडों और हजारों राक्षस अश्वत्थामा मस्तक पर शक्ति, शतघ्नी, परिघ, अशनि, शूल, पटिश, खग्ड, गदा, मिन्दिपाल, मुसल, फरसे, प्रास, कटार, तोमर, कणप, तीखे कम्पन, मोटे-मोटे पत्थर, भुशुण्डी, गदा, काले लोहे के खंभे तथा शत्रुओं को विदीर्ण करने में समर्थ महाघोर मुहरों की वर्षा करने लगे। द्रोणपुत्र के मस्तक पर अस्त्रों की वह बडी भारी वर्षा होती देख आपके समस्त सैनिक व्यथित हो उठे। परंतु पराक्रमी द्रोणकुमार ने शिला पर तेज किये हुए अपने वज्रोपम बाणों द्वारा वहां प्रकट हुई उस भयंकर अस्त्रवर्षा का विध्वंस कर डाला। तत्पश्चात् महामनस्वी अश्वत्थामा ने दिव्यास्त्रों से अभिमन्त्रित सुवर्णमय पंखवाले अन्य बाणों द्वारा तत्काल ही राक्षसों को घायल कर दिया। उन बाणों से चौडी छातीवाले राक्षसों का समूह अत्यन्त पीडित हो सिंहो द्वारा व्याकुल किये गये मतवाले हाथियों के झुंड के समान प्रतीत होने लगा। द्रोणपुत्र की मार खाकर, अत्यन्त क्रोध में भरे हुए महाबली राक्षस उसे मार डालने की इच्छा से रोषपूर्वक दौडे ।। भारत ! वहां अश्वत्थामा ने यह ऐसा अद्रुत पराक्रम दिखाया, जिसे समस्त प्राणियों में और किसी के लिये कर दिखना असम्भव था। क्योंकि महान् अस्त्रवेता अश्वत्थामा ने अकेले ही उस राक्षसी सेना को राक्षसराज घटोत्कचके देखते-देखते अपने प्रज्वलित बाणों द्वारा क्षणभर में भस्म कर दिया। जैसे प्रलयकाल में संवर्तक अग्नि समस्त प्राणियों को दग्ध कर देती हैं, उसी प्रकार राक्षसों की उस सेना का संहार करके युद्धस्थल में अश्वत्थामा की बडी शोभा हुई ।।151।। भरतनन्दन ! युद्धस्थल में पाण्डवपक्ष के सहस्त्रों राजाओं में से वीर महाबली राक्षसराज घटोत्कच को छोडकर दूसरा कोई भी विषधर सर्पोके समान भयंकर बाणों द्वारा पाण्डवों की सेनाओं को दग्ध करते हुए अश्वत्थामा की ओर देख न सका ।। भरतश्रेष्ठ ! पुनः क्रोध से घटोत्कच की आंखें घूमने लगी। उसने हाथ से हाथ मलकर ओठ चबा लिया और कुपित हो सारथि से कहा- ’सूत ! तू मुझें द्रोणपुत्र के पास-ले चल ’। शत्रुओं का संहार करनेवाला घटोत्कच सुन्दर पताकाओं-से सुशोभित, प्रकाशमान एवं भयंकर रथ के द्वारा पुनः द्रोणपुत्र के साथ द्वैरथ युद्ध करनेके लिये गया। उस भयंकर पराक्रमी राक्षस ने सिंह के समान बडी भारी गर्जना करके संग्राम में द्रोणपुत्रपर देवताओं द्वारा निर्मित तथा आठ घंटियों से सुषोभित एक महाभयंकर अशनि (वज्र) घुमाकर चलायी। यह देख अश्वत्थामा ने रथ पर अपना धनुष रख उछल-कर उस अशनि को पकड लिया और उसे घटोत्कच के ही रथ पर दे मारा। घटोत्कच उस रथसे कूद पडा। यह अत्यन्त प्रकाशमान तथा परम दारूण अशनि घोडे, सारथि और ध्वजसहित घटोत्कच के रथ को भस्म करके पृथ्वी को छेदकर उसके भीतर समा गयी। अश्वत्थामा भगवान् शंकर द्वारा निर्मित उस भयंकर अशनि को जो उछलकर पकड लिया, उसके उस कर्म को देखकर समस्त प्राणियों ने उसकी भूरि-भूरि प्रंशसा की। नरेश्वर ! उस समय भीमसेनकुमार ने धृष्टद्युम्न के रथ पर आरूढ हो इन्द्रायुध के समान विशाल एवं घोर धनुष हाथ में लेकर अश्वत्थामा के विशाल वक्षःस्थलपर बहुतसे तीखे बाण मारे। धृष्टद्यूम्न ने भी बिना किसी घबराहट के विघधर सर्पो के समान सुवर्णमय पंखवाले बहुत से बाण द्रोणपुत्र के वक्षःस्थल पर छोडे तब अश्वत्थामा ने भी उनपर सहस्त्रों नाराच चलाये। धृष्टद्यूम्न और घटोत्कच ने भी अग्रिशिखा के समान तेजस्वी बाणों द्वारा अश्वत्थामा के नाराचों को काट डाला।
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