महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 167 श्लोक 20-40
सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
यद्दपि सहदेव उस समय वध करने योग्य अवस्था में पहुँच गये थे, तो भी कुन्ती को दिये हुए वचन को याद करके समरागंण में शत्रुसूदन सत्यप्रतिज्ञ एवं महायशस्वी कर्ण ने उनका वध नहीं किया। राजन्! तदनन्तर सहदेव कर्ण के बाणों से पीड़ित और उसके वचनरूपी बाणों से संतप्त एवं खिन्नचित्त हो अपने जीवन से विरक्त हो गये। फिर वे महारथी सहदेव बड़ी उतावली के साथ महामना पाञ्चाल राजकुमार जनमेजय के रथ पर आरूढ़ हो गये। द्रोणाचार्य पर वेगपूर्वक आक्रमण करने वाले सेनासहित धनुर्धर राजा विराट को मद्रराज शल्यने अपने बाणसमूहों से आच्छादित कर दिया। राजन्! फिर तो समरागंण में उन दोनों सुदृढ़ धनुर्धर योद्धाओं में वैसा ही घोर युद्ध होने लगा, जैसा कि पूर्वकाल में इन्द्र और जम्भासुर में हुआ था। महाराज! मद्रराज शल्य ने सेनापति राजा विराट को बड़ी उतावली के साथ झुकी हुई गाँठवाले सौ बाण मारकर तुरंत घायल कर दिया। राजन्! तब विरट ने मद्रराज को पहले नौ, फिर तिहत्तर और पुनः सौ तीखे बाणों से घायल करके बदला चुकाया। तदनन्तर मद्रराज ने विराट के रथ के चारों घोड़ों को मारकर दो बाणों से कमरागंण में सारथि और ध्वज को भी काट गरिया। तब उस अश्वहीन रथ से तुरंत ही कूदकर महारथी राजा विराट धनुष की टंकार करते और तीखे बाणों को छोड़ते हुए भूमि पर खड़े हो गये। तत्पश्चात् शतानीक अपने भाई के वाहन को नष्ट हुआ देख सब लोगों के देखते-देखते शीघ्र ही रथ के द्वारा उनके पास आ पहुँचे। उस महासमर में वहाँ आते हुए शतानीक को बहुत से बाणों द्वारा घायल करके मद्रराज शल्य ने उन्हें यमलोक पहुँचा दिया। वीर शतानीक के मारे जाने पर रथियों में श्रेष्ठ विराट तुरंत ही ध्वज माला से विभूषित उसी रथ पर आरूढ़ हो गये। तब क्रोध से आँखें फाड़कर दूना पराक्रम दिखाते हुए विराट ने अपने बाणों द्वारा मद्रराज के रथ को शीघ्र ही आच्छादित कर दिया। इससे कुपित हुए मद्रराज शल्य ने झुकी हुई गाँठवाले एक बाण से सेनापति विराट की छाती में गहरी चोट पहुँचायी। महाराज! भरतभूषम! राजा विराट अत्यन्त घायल होकर रथ के पिछले भाग मे धम्म से बैठ गये और उन्हें तीव्र मूर्च्छाने दबा लिया। भरतनन्दन! समरागंण में बाणों से क्षत-विक्षत हुए राजा विराट को उनका सारथि दूर हटा ले गया। तब संग्राम में शोभा पाने वाले शल्य के सैकड़ों सायकों से पीड़ित हुई वह विशाल सेना उस रात्रि के समय भाग खड़ी हुई। राजेन्द्र! उस सेना को भागती देख श्रीकृष्ण और अर्जुन उसी ओर चल दिये, जहाँ राजा शल्य खड़े थे।। राजन्! उस समय राक्षस राज अलम्बुष आठ पहियों से युक्त श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो उन दोनों का सामना करने के लिये आगे बढ़ आया। उसके उस रथ में घोड़ों के समान मुखवाले भयंकर पिशाच जुते हुए थे। उस पर लाल रंग की आर्द्र पताका फहरा रही थी। उस रथ को लाल रंग के फूलों की माला से सजाया गया था। वह भयंकर रथ काले लोहे का बना था और उसके ऊपर रीछ की खाल मढ़ी हुई थी। उसकी ध्वजा पर विचित्र पंख और फैले हुए नेत्रों वाला भयंकर गृध्रराज अपनी बोली बोलता था। उससे उपलक्षित उस ऊँचे ढंडेवाले कान्तिमान् ध्वज से कटे-छटे कोयले के पहाड़ के समान वह राक्षस बड़ी सोभा पा रहा था।
« पीछे | आगे » |