महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 174 श्लोक 24-45
चतुःसप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
तत्पश्चात् भीमसेन पुत्र घटोत्कच ने शत्रुसमूहों का नाश करने वाली अपनी परिघ-जैसी मोटी बाँह के मुक्के से जटासुर के पुत्र को बहुत मारा। क्रोध में भरे हुए हिडिम्बाकुमार ने उसे अच्छी तरह मथकर तुरंत ही धरती पर दे मारा और इन्द्र-ध्वजक समान अपनी दोनों भुजाओं द्वारा उसे भूतल पर रगड़ना आरम्भ किया। तब जटासुर का पुत्र अपने आपको घटोत्कच के बन्धन से छुड़ाकर पुनः उठ गया और बडे़ वेग से उसकी ओर झपटा। अलम्बुष ने भी झटका देकर रणभूमि में राक्षस घटोत्कच को उठाकर पटक दिया और रोषपूर्वक वह उसे पृथ्वी पर रगड़ने लगा। गरजते हुए उन दोनों विशलकाय राक्षस घटोत्कच और अलम्बुष का वह युद्ध बड़ा ही भयंकर और रोमांचकारी था। इन्द्र और बलि के समान महापराक्रमी वे दोनों अत्यन्त मायावी राक्षस अपनी मायाओं द्वारा एक दूसरे से बढ़ जाने की चेष्टा करते हुए परस्पर युद्ध कर रहे थे। एक ने आग बनकर आक्रमण किया तो दूसरे ने महासागर बनकर उसे बुझा दिया। इसी प्रकार एक तक्षक नाग बना तो दूसरा गरूड़। फिर एक मेघ बना तो दूसरा प्रचण्ड वायु। तत्पश्चात् एक महान् पर्वत बनकर खड़ा हुआ तो दूसरा वज्र बनकर उस पर टूट पड़ा। फिर वे क्रमशः हाथी और सिंह तथा सूर्य और राहु बन गये। इस प्रकार वे अलम्बुष और घटोत्कच एक दूसरे के वध की इच्छा से सैकड़ों मायाओं की सृष्टि करते हुए परस्पर अत्यन्त विचित्र युद्ध करने लगे। वे दोनों निशाचर परिघ, गदा, प्रास, मुद्रर, पट्टिश, मुसल तथा पर्वतशिखरों से एक दूसरे पर चोट करने लगे।। उस युद्धस्थल में वे महामायावी श्रेष्ठ राक्षस अपने हाथियों, घोड़ों, रथों और पैदल सैनिकों के द्वारा एक दूसरे पर प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे। राजन्! तदनन्तर घटोत्कच अलम्बुष के वध की इच्छा से अत्यन्त कुपित होकर ऊपर उछला और जैसे बाज(चिडि़या पर) झपटता है, उसी प्रकार उसके ऊपर टूट पड़ा। विशालकाय राक्षसराज अलम्बुष को दोनों हाथों से पकड़कर घटोत्कच ने युद्धस्थल में उसे उठाकर धरती पर दे मारा, मानो भगवान विष्णु ने मयासुर को पछाड़ दिया हो। महाराज! तब अमितपराक्रमी घटोत्कच ने अद्भुत दिखायी देने वाली अपनी तलवार उठाकर समरागंण में अत्यन्त भयंकर गर्जना करते और उछल-कूद मचाते हुए शत्रु अलम्बुष के भयंकर एवं विकराल मस्तक को उस भयानक राक्षस की काया से काटकर अलग कर दिया। खून से भीगे हुए उस मस्तक के केश पकड़कर महाबाहु राक्षस घटोत्कच दुर्योधन के रथ की ओर चल दिया और पास जाकर मुसकराते हुए उसने विकराल मुख एवं केशवाले उस सिर को उसके रथ पर फेंककर वर्षाकाल के मेघ की भाँतिभयंकर गर्जना की। राजन्! तत्पश्चात् वह दुर्योधन से इस प्रकार बोला- ‘यह है तेरा सहायक बन्धु, इसे मैंने मार डाला। तूने देख लिया न इसका पराक्रम। ‘अब तू कर्ण की तथा अपनी भी फिर ऐसी ही अवस्था देखेगा। जो अपने धर्म, अर्थ और काम तीनों की इच्छा रखता है, उसे राजा, ब्राह्मण और स्त्री से खाली हाथ नहीं मिलना चाहिये (इसीलिये तेरे मित्र का यह मस्तक मैं भेंट के तौर पर लाया हूँ)। ‘तू तब तक यहाँ प्रसन्नतापूर्वक खड़ा रह, जब तक कि मैं कर्ण का वध नहीं कर लेता।’ नरेश्वर! ऐसा कहकर क्रोध में भरा हुआ घटोत्कच तीखे बाणसमूहों की वर्षा करता हुआ युद्ध के मुहाने पर कर्ण के पास चला गया। महाराज! तदनन्तर रणभूमि में सबको विस्मय में डालने वाला मनुष्य और राक्षस का वह घोर एवं भयानक युद्ध आरम्भ हो गया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत घटोत्कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में अलम्बुषवधविषयक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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