महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 182 श्लोक 1-17

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द्वयशीत्यधिकशततम (182) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: द्वयशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण ने अर्जुन पर शक्ति क्यों नहीं छोड़ी, इसके उत्तर में संजय का धृतराष्ट्र से और श्रीकृष्ण का सात्यकि से रहस्ययुक्त कथन

धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय! कर्ण के पास जो शक्ति थी, वह यदि एक ही वीर का वध करके निष्फल हो जाने वाली थी तो उसने सबको छोड़कर अर्जुन पर ही उसका प्रहार क्यों नहीं किया? अर्जुन के मारे जाने पर समस्त सृंजय और पाण्डव अपने आप नष्ट हो जाते। अतः एक वीर अर्जुन का ही वध करके उसने युद्ध में क्यों नहीं विजय प्राप्त की? अर्जुन का तो यह महान् व्रत ही है कि युद्ध में किसी के बुलाने पर मैं पीछे नहीं लौट सकता, ऐसी दशा में सूतपुत्र कर्ण को स्वयं ही अर्जुन की खोज करनी चाहिये थी। संजय! इस प्रकार अर्जुन को द्वैरथ-युद्ध में लाकर धर्मात्मा कर्ण ने इन्द्र की दी हुई शक्ति से उन्हें क्यों नहीं मार डाला? यह मुझे बताओ। निश्चय ही मेरा पुत्र दुर्योधन बुद्धिहीन और असहाय है। शत्रुओं ने उसे ठग लिया। अब वह पापी अपने शत्रुओं पर केसे विजय पा सकता है? जो इसकी सबसे बड़ी शक्ति और विजय का आधार स्तम्भ थी, उस दिव्य शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर श्रीकृष्ण ने व्यर्थ कर दिया। जैसे कोई बलवान् पुरूष लुंजे (टूंटे) के हाथ का फल छीन ले, उसी प्रकार श्रीकृष्णने उस अमोघ शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर अन्यत्र के लिये निष्फल कर दिया। विद्वन्! जैसे सूअर और कुत्तों के आपस में लड़ने पर उन दोनों में से किसी की भी मृत्यु जो जाय तो चाण्डाल को लाभ ही होता है, उसी प्रकार कर्ण और घटोत्कच के युद्ध में मैं वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण का ही लाभ हुआ मानता हूँ। घटोत्कच यदि कर्ण को मार देगा तो पाण्डवों को बहुत बड़ा लाभ होगा और यदि वैकर्तन कर्ण घटोत्कच को मार डालेगा तो भी इन्द्र की दी हुई शक्ति का नाश हो जाने से उनका ही प्रयोजन सिद्ध होगा। मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी बुद्धिमान वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने अपनी बुद्धि से यही सोचकर पाण्डवों का प्रिय तथा हित करते हुए युद्ध में सूतपुत्र कर्ण के द्वारा घटोत्कच को मरवा दिया।

संजय ने कहा- राजन्! कर्ण भी उस शक्ति से अर्जुन को ही वध करना चाहता था। उसके इस अभिप्राय को जानकर परम बुद्धिमान मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने उस अमोघ शक्ति को नष्ट करने के लिये ही कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध में उस समय महापराक्रमी राक्षसराज घटोत्कच को लगाया। महाराज! यह सब आपकी कुमन्त्रणा का ही फल है। कुरूश्रेष्ठ! यदि श्रीकृष्ण महारथी कर्ण से कुन्तीकुमार अर्जुन की रक्षा न करते तो हम लोग उसी समय कृतकार्य हो गये होते। महाराज धृतराष्ट्र! यदि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण न हों तो अर्जुन घोड़े, ध्वज और रथसहित निश्चय ही युद्ध में धराशायीहो जायँ। राजन्! नाना प्रकार के विभिन्न उपायों से श्रीकृष्ण द्वारा सुरक्षित रहकर ही अर्जुन सम्मुख युद्ध में शत्रुओं पर विजय पाते हैं। श्रीकृष्ण ने विशेष प्रयत्न करके उस अमोघ शक्ति से पाण्डु पुत्र अर्जुन की रक्षा की है, नहीं तो जैसे वज्र गिरकर वृक्ष को भस्म कर देता है, उसी प्रकार वह शक्ति कुन्तीकुमार अर्जुन को शीघ्र ही नष्ट कर देती।

धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! मेरा पुत्र दुर्योधन सबका विरोधी और अपने को ही सबसे अधिक बुद्धिमान समझने वाला है। उसके मंत्री भी अच्छे नहीं हैं, इसीलिये अर्जुन के वध और विजय-लाभ का यह अमोघ उपाय उसके हाथ से निकल गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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