महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 183 श्लोक 47-67

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्र्यशीत्यधिकशततम (183) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: त्र्यशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 47-67 का हिन्दी अनुवाद

‘पुरूषोत्तम! ये कर्ण और द्रोण ही हमारे दुःखों के मूल कारण हैं। रणभूमि में इन्हीं का संहारा लेकर दुर्योधन का ढाढ़स बँधा हुआ है। ‘जहाँ द्रोणाचार्य का वध होना चाहिये था तथा जहाँ सेवकों सहित सूत पुत्र कर्ण को मार गिराना चाहिय था, वहाँ महाबाहु अर्जुन ने दूर रहने वाले सिंधुराज जयद्रथ का वध किया है। ‘मुझे तो अवश्य ही सूत पुत्र कर्ण का दमन करना चाहिये। अतः वीर! मैं स्वयं ही कर्ण का वध करने की इच्छा से युद्धभूमि में जाऊँगा। महाबाहु भीमसेन द्रोणाचार्य की सेना के साथ युद्ध कर रहे हैं’। ऐसा कहकर राजा युधिष्ठिर भयंकर शंख बजाकर अपने विशाल धनुष की टंकार करते हुए बड़ी उतावली के साथ तुरंत वहाँ से चल दिये। तदनन्तर शिखण्डी, एक सहस्त्र रथ, तीन सौ हाथी, पाँच हजार घोड़े तथा पान्चालों और प्रभद्रकों की सेना साथ ले उनसे घ्ज्ञिरा हुआ शीघ्रतापूर्वक राजा युधिष्ठिर के पीछे-पीछे गया। तब पान्चालों और पाण्डवों ने युधिष्ठिर को आगे करके कवच आदि से सुसज्जित हो डंके पीटे और शंख बजाये। उस समय महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन ने कहा- ‘ये राजा युधिष्ठिर क्रोध के आवेश से युक्त हो सूत पुत्र कर्ण का वध करने की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़े जा रहे हैं। इस समय इन्हें अकेले छोड़ देना उचित नहीं है’। ऐसा कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही घोड़ों को हाँका और दूर जाते हुए राजा का अनुसरण किया। धर्मराज युधिष्ठिर का संकल्प (विचार-शक्ति) शोक से नष्ट सा हो गया था। वे क्रोध की आग में चलते हुए से जान पड़ते थे। उन्हें सूत पुत्र के वध की इच्छा से सहसा जाते देख महर्षि व्यास उनके समीप प्रकट हो गये और इस प्रकार बोले।

व्यास ने कहा- राजन्! बड़े सौभाग्य की बात है कि संग्राम में कर्ण का सामना करके भी अर्जुन अभी जीवित है, क्योंकि उसने उन्हीं के वध की इच्छा से अपने पास इन्द्र की दी हुई शक्ति रख छोड़ी थी। उस महासमर में कर्ण के साथ द्वैरथयुद्ध करने के लिये अर्जुन नहीं गये, यह बहुत अच्छा हुआ। ये दोनों वीर एक दूसरे से स्पर्धा रखते हैं, अतः युधिष्ठिर! यदि ये सब प्रकार से दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते तो फिर अपने अस्त्रों के नष्ट होने पर सूतनन्दन कण्र्का पीडि़त हो समरागंण में इन्द्र की दी हुई शक्ति को निश्चय ही अर्जुन पर चला देता। भरतश्रेष्ठ! उस दशा में तुम पर और भयंकर विपत्ति टूट पड़ती। मानद! यह हर्ष की बात है कि युद्ध में सूत पुत्र कर्ण ने उस राक्षस को ही मारा है। वास्तव में इन्द्र की शक्ति को निमित्त बनाकर काल ने ही उसका वध किया है। तात! भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे हित के लिये ही वह राक्षस युद्ध में मारा गया है, ऐसा समझकर न तो तुम किसी पर क्रोध करो और न मन में शोक को ही स्थान दो। युधिष्ठिर! इस जगत् के समस्त प्राणियों की अन्त में यही गति होती है। भरतवंशी नरेश! तुम अपने समस्त भाइयों तथा महामना भूपालों के साथ जाकर समरभूमि में कौरवों का सामना करो। तात! आज के पाँचवें दिन यह सारी पृथ्वी तुम्हारी हो जायगी। पुरूषसिंह पाण्डुनन्दन! तुम सदा धर्म का ही चिन्तन करो तथा कोमलता (दयाभाव), तपस्या, दान, क्षमा और सत्य आदि सद्गुणों का ही अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक सेवन करो, क्योंकि जिस पक्ष में धर्म है, उसी की विजय होती है। पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर से ऐसा कहकर महर्षि व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गतघटोत्‍कचवध पर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में व्‍यासववाक्‍य विषयक एक सौ तिरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।