महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 184 श्लोक 1-22
चतुरशीत्यधिकशततम (184) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
निद्रा से व्याकुल हुए उभयपक्ष के सैनिकों का अर्जुन के कहने से सो जाना और चन्द्रोदय के बाद पुनः उठकर युद्ध में लग जाना
संजय कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! व्यासजी के ऐसा कहने पर वीर धर्मराज युधिष्ठिर स्वयं कर्ण का वध करने के विचार से हट गये। सूत पुत्र के द्वारा घटोत्कच के मारे जाने पर उस रात में धर्मराज युधिष्ठिर दुःख और अमर्ष के वशीभूत हो गये। भीमसेन के द्वारा आपकी विशाल सेना का निवारण होता देख उन्होंने धृष्टद्युम्न से इस प्रकार कहा- 'वीर! तुम द्रोणाचार्य को आगे बढ़ने से रोको। 'तुम तो शत्रुओं को संताप देने वाले हो और द्रोण का विनाश करने के लिये ही बाण, कवच, खडग और धनुषसहित अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुए हो। 'अतः हर्ष में भरकर रणभूमि में द्रोणाचार्य पर धावा करो। तुम्हें किसी प्रकार भय नहीं होना चाहिये। जनमेजय, शिखण्डी तथा दुर्मुख पुत्र यशोदर- ये हर्ष और उत्साह में भरकर चारों ओर से द्रोणाचार्य पर धावा करे। 'नकुल, सहदेव, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, प्रभद्रकगण, पुत्रों और भाइयों सहित द्रुपद और विराट, सात्यकि, केकय तथा पाण्डु पुत्र अर्जुन- ये द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से वेगपूर्वक उन पर धावा बोल दें। 'इसी प्रकार हमारे समस्त रथी, हाथी-घोड़ों की जो कुछ भी सेना अवशिष्ट है वह और पैदल सैनिक- ये सभी रणभूमि में महारथी द्रोणाचार्य को मार गिरावें'। पाण्डुनन्दन महात्मा युधिष्ठिर के इस प्रकार आदेश देने पर वे सब वीर द्रोणाचार्य के वध की इच्छा से वेगपूर्वक उन पर टूट पड़े।। उन समस्त पाण्डव सैनिकों को पूरे उद्योग के साथ सहसा आक्रमण करते देख शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य ने समरभूमि में आगे बढ़कर उनका सामना किया। उस समय द्रोणाचार्य के जीवन की रक्षा चाहते हुए राजा दुर्योधन ने अत्यन्त कुपित हो पूरे प्रयत्न के साथ पाण्डवों पर धावा किया। तदनन्तर एक दूसरे को लक्ष्य करके गर्जते हुए पाण्डव तथा कौरव योद्धाओं में पुनः युद्ध आरम्भ हो गया। वहाँ जितने वाहन और सैनिक थे, वे सभी थक गये थे। महाराज ! युद्ध में अत्यन्त थके हुए महारथी योद्धा निद्रा से अंधे हो रहे थे, अतः संग्राम में कोई चेष्टा नहीं कर पाते थे। यह तीन पहर की रात उनके लिये सहस्त्रों प्रहरों की रात्रि के समान घोर, भयानक एवं प्राणहारिणी प्रतीत होती थी। वहाँ बाँणों की चोट सहते और विशेषतः क्षत-विक्षत होते हुए निद्रान्ध सैनिकों की आधी रात बीत गयी। उस समय आपकी और शत्रुओं की सेना के समस्त क्षत्रिय उत्साहहीन एवं दीनचित्त हो गये थे, उनके हाथों से अस्त्र और बाण गिर गये थे। वे उस समय अच्छी तरह युद्ध नहीं कर पा रहे थे, तो भी विशेषतः लज्जाशील होने के कारण अपने धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपनी सेना छोड़कर जा न सके। भारत ! दूसरे बहुत से सैनिक अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़कर नींद से अन्धे होकर सो रहे थे। कुछ लोग रथों पर, कुछ हाथियों पर और कुछ लोग घो़ड़ों पर ही सो गये थे। नरेश्वर! नींद से बेसुध होने के कारण वे किसी भी चेष्टा को समझ नहीं पाते थे और उन्हें दूसरे योद्धा समराडंग में यमलोक भेज देते थे। दूसरे सैनिक शत्रुओं को स्वप्न में पड़कर अत्यन्त बेसुध हुए देख उन्हें मार बैठते थे। कुछ लोग उस महासमर में निद्रान्ध होकर नाना प्रकार की बातें कहते हुए कभी अपने आप पर ही प्रहार कर बैठते थे, कभी अपने पक्ष के ही लोगों को मार डालते थे और कभी शत्रुओं का भी वध करते थे। महाराज ! हमारे पक्ष के भी बहुत से सैनिक शत्रुओं के साथ युद्ध करना है, ऐसा समझकर खड़े थे, परंतु नींद से उनकी आँखें लाल हो गयी थीं।
« पीछे | आगे » |