महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 199 श्लोक 20-34

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नवनवत्यधिकशततम (199) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: नवनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद

पुरूष श्रेष्‍ठ ! उस समय आकाश को विभिन्‍न शस्‍त्रों के आकार वाले पदार्थो से अत्‍यन्‍त व्‍याप्‍त हुआ सा देख पाण्‍डव, पान्‍चाल और सूंजय योध्‍दा उध्गिन हो उठे । जनेश्‍वर ! पाण्‍डव महारथी जैसे जैसे युध्‍द करते थे, वैसे ही वैसे उस अस्‍त्र का वेग बढ़ता जाता था । उस नारायणास्‍त्र से घायल हुए सैनिक रणभूमि में ऐसे पीडित हुए मानो सब ओर से आग में झुलस रहे हों । प्रभो ! जैसे सर्दी बीतने पर गर्मी में लगी हुई आग सूखे काठ या जंगल को जला डाले, उसी प्रकार वह अस्‍त्र पाण्‍डव सेना को भस्‍म करने लगा । प्रभो ! जैसे सर्दी बीतने पर गर्मी में लगी हुई आग सूखे काठ या जंगल को जला डाले, उसी प्रकार वह अस्‍त्र पाण्‍डव सेना को भस्‍म करने लगा । राजन ! जब वह अस्‍त्र सब और व्‍याप्‍त हो गया और उसके द्वारा पाण्‍डव सेना क्षीण होने लगी, तब धर्म पुत्र युष्ठिर को बड़ा भय हुआ । उन्‍होंने अपनी उस सेनाको जब अचेत होकर भागती और कुन्‍ती पुत्र अर्जुन को तटस्‍थ भाव से खड़ा देखा, तब इस प्रकार कहा - ‘धृष्‍टधुम्‍न ! तुम पान्‍चालों की सेना के साथ भाग जाओा सात्‍य के ! तुम भी वृष्णिवंशी और अन्‍धकवंशी वीरों के साथ लेकर चले जाओ । भगवान श्रीकृष्‍ण भी अपने लिये जा उचित समझेंगे, करेंगेा ये सारे जगत् के कल्‍याण का उपदेश देते है’, फिर अपना भला क्‍यों नहीं करेंगे ? ‘मैं तुम सभी सैनिकों से कह रहा हॅू, कोई भी युध्‍द न करेा अब मैं भाइयों के साथ अग्नि में प्रवेश कर जाऊॅगा । ‘कायरों के लिये दुस्‍तर संग्राम में भीष्‍म और द्रोणाचार्य रूपी महासागर को पार करके मैं सगे सम्‍बन्धियों के साथ अश्‍वथामा रूपी गायकी खुरीके जल में डूब जाऊॅगा । ‘अर्जुन की मेरे प्रति जो शुभ कामना है, वह शीघ्र पूरी हो जानी चाहिये; क्‍योंकि सदा अपने कल्‍याण में संलग्‍न रहने वाले आचार्य को मैनें युध्‍द में मरवा दिया है । ‘जिन्‍होंने युध्‍द कौशल से रहित बालक सुभद्रा कुमारी को क्रूर स्‍वभाव वाले बहुसंख्‍यक शक्तिशाली महारथ्यिों द्वारा मरवा दिया और उसकी रक्षा नहीं की । ‘पुत्र सहित जिन्‍होंने सभा में लायी गयी द्रौपदी के प्रश्न का उत्‍तर न देकर उसके प्रति उपेक्षा दिखायी, उस समय वह बेचारी हमारे दासभाव के निवारण का प्रयत्‍न कर रही थी । ‘जिन्‍होंने अर्जुन के विनाश के लिये युघ्‍द में‍ सिंधुराज की रक्षा की निमित्‍त महान् प्रयत्‍न किया और अपनी प्रतिज्ञा रखी । ‘हम लोग विजय की अभिलाषा से आगे बढ़ना चाहते थे; किन्‍तु जिन्‍होंने हमें व्‍यूह के दरवाजे पर ही रोक रखा था, यथाशक्ति उसके भीतर प्रवेश करने की चेष्‍ठा में लगी हुई हमारी विशाल सेना को भी उन्‍होंने रोक ही दिया थ। ‘अर्जुन के घोड़े जब थक गये थे और धृतराष्‍ट पुत्र दुर्योधन जब अर्जुन के वध की इच्‍छा से उन पर आक्रमण कर रहा था, उस समय जिन्‍होंने उसकी तथा सिंधुराज की रक्षा के लिये उसे दिव्‍य कवच द्वारा सुरक्षित कर दिया था । ‘ब्रहमाशस्‍त्र को जानने वाले जिन आचार्य देव ने मेरी विजय के लिये प्रयत्‍न करने वाले सत्‍यजित् आदि पान्‍चाल वीरों को समूल नष्‍ट कर दिया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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