महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 200 श्लोक 17-35
द्विशततम (200) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
‘तुम्हारे सभी सैनिक रथ से उतर गये हैं। कुन्तीकुमार ! अब तुम भी शीघ्र ही रथ से उतरकर युध्द से अलग हो जाओ’ । ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने क्रोध से लाल ऑखें करके सर्प के समान फुफकारते हुए भीमसेन को रथ से भूमि पर उतार लिया । जब ये रथ से उतर गये और उनसे अस्त्र शस्त्रों को भूमि पर रखवा लिया गया, तब वह शत्रुओं को संताप देने वाला नारायणास्त्र स्वयं प्रशान्त हो गया । संजय कहते हैं- राजन ! उस विधि से उस दुःसह तेज के शान्त हो जाने पर सारी दिशाऍ और विदिशाऍ निर्मल हो गयीं। शीतल सुखद वायु चलने लगी। पशु पक्षियों का आर्तनाद बंद हो गया तथा उस दुर्जय अस्त्र के शान्त होने पर सारे वाहन भी सुखी हो गये । भारत ! उस भयंकर तेज के दूर हो जाने पर बुध्दिमान् भीमसेन रात बीतने पर उगे हुए सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे । पाण्डवों की जो सेना मरने से बच गयी थी, वह उस अस्त्र के शान्त हो जाने से पुनः आपके पुत्रों का विनाश करने के लिये हर्ष से खिल उठी । ‘अश्वत्थामा ! तुम पुनः शीघ्र ही इसी शस्त्र का प्रयोग करोय क्योंकि विजय की अभिलाशा रखने वाले ये पान्चाल सैनिक पुनः युध्द के लिये आकर डट गये हैं’ । मान्यवर ! आपके पुत्र के ऐसा कहने पर अश्वत्थामा ने अत्यन्त दीन भाव से उच्छ्वास लेकर राजा से इस प्रकार कहा । ‘राजन ! न तो यह अस्त्र फिर लौटता है और न इसका दुबारा प्रयोग ही हो सकता है। यदि इसका पुनः प्रयोग किया जाय तो यह प्रयोग करने वाले को ही समाप्त कर देगा’ इसमें संशय नहीं है । ‘जनेश्वर ! श्रीकृष्ण ने इस अस्त्र के निवारण का उपाय बता दिया है और उसका प्रयोग किया हैय अन्यथा आज युध्द में सम्पूर्ण शत्रुओं का वध हो ही गया होता । ‘पराजय हो या मृत्यु, इनमें मृत्यु ही श्रेष्ठ है, पराजय नहीं। ये सारे शत्रु हार गये थे; हथियार डालकर मुर्दे के समान हो गये थे’ । दुर्योधन बोला - आचार्य पुत्र ! तुम तो सम्पूर्ण अस्त्रवेताओं में श्रेष्ठ हो। यदि इस अस्त्र का दो बार प्रयोग नहीं हो सकता तो तुम दूसरे ही अस्त्रों द्वारा इन गुरू जातियों का वध करो । तुम में तथा अमित तेजस्वी भगवान शंकर में ही सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं। यदि तुम मारना चाहो तो क्रोध में भरे हुए इन्द्र भी तुमसे बचकर नहीं जा सकते । धृतराष्ट्र ने पूछा - संजय ! द्रोणाचार्य छलपूर्वक मारे गये और नारायणास्त्र भी प्रतिहत हो गया, तब दुर्योधन के वैसा कहने पर अश्वत्थामा ने फिर क्या किया । क्योंकि उसने देख लिया था कि नारायणास्त्र से छूटे हुए पाण्डव संग्राम युध्द के लिये उपस्थित हैं और युध्द के मुहाने पर विचर रहे हैं । संजय ने कहा - राजन ! अश्वत्थामा की ध्वजा पताका में सिंह की पॅूछ का चिन्ह बना हुआ था। उसने पिता के मारे जाने की घटना का स्मरण करके अपितु हो भय छोड़कर धृष्टप्रदुम्न पर धावा किया । नरश्रेष्ठ ! निकट जाकर पुरूषप्रवर अश्वत्थामा ने धृष्टप्रदुम्न को पहले क्षुद्रक नामवाले बीस बाण मारे। फिर अत्यन्त वेग से पॉच बाणों का प्रहार करके उन्हें घायल कर दिया ।
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