महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 201 श्लोक 1-18

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एकाधिकद्विशततम (201) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

अश्‍वत्‍थामा के द्वारा आग्‍नेयास्‍त्र के प्रयोग से एक अक्षौहिणी पाण्‍डव सेना का संहार; श्रीकृष्‍ण और अर्जुन पर अस्‍त्र का प्रभाव न होने से चिन्तित हुए अश्‍वत्‍थामा को व्‍यासजी का शिव और श्रीकृष्‍ण की महिमा बताना संजय कहते हैं- राजन ! तदनन्‍तर अमेय आत्‍म बल से सम्‍पन्‍न कुन्‍ती कुमार अर्जुन ने सेना को भागती देख द्रोण पुत्र् पर विजय पाने की इच्‍छा से उसे रोका । नरेश्‍वर ! श्रीकृष्‍ण और अर्जुन के द्वारा प्रयत्‍नपूर्वक ठहराये जाने पर भी वे सैनिक वहॉ खडे न हो सके । अकेले अर्जुन ही सोमकों की टुकडियों, मत्‍स्‍यदेशीय योध्‍दाओं तथा अन्‍य लोगों को साथ लेकर कौरवों का सामना करने के लिये लौटे । सव्‍यसाची अर्जुन सिंह की पॅूछ के चिन्‍ह वाली ध्‍वजा से युक्‍त महाधनुर्धर अश्‍वत्‍थामा के पास तुरंत आकर उससे इस प्रकार बोले । ‘आचार्यपुत्र् ! तुम में जो शक्ति,जो विज्ञान, जो बल पराक्रम, जो पुरूषार्थ, कौरवों पर जो प्रेम तथा हम लोगोपर तो तुम्‍हारा देष हो, साथ ही तुम में जो तेज और प्रभाव हो, वह सब मुझ पर दिखाओ । द्रोणाचार्य का वध करने वाला वह धृष्‍टप्रदुम्‍न ही तुम्‍हारा सारा घमंड चूर कर देगा । ‘कालाअग्नि के समान तेजस्‍वी तथा शत्रुओं के लिये यमराज के समान भयंकर पान्‍चाल राजकुमार धृष्‍टप्रदुम्‍न पर तथा श्रीकृष्‍ण सहित मुझ पर भी तुम आक्रमण करो तुम बडे उदण्‍ड हो रहे हो आज युध्‍द में मैं तुम्‍हारा सारा घमंड दूर कर दॅूगा’ । धृतराष्‍ट ने पूछा – संजय ! आचार्य पुत्र् अश्‍वत्‍थामा बलावन् और सम्‍मान के योग्‍य है। उसका अर्जुन पर प्रेम है औन वह भी महात्‍मा अर्जुन को प्रिय है। अर्जुन का उसके प्रति ऐसा कठोर वचन पहले कभी नहीं सुना गया। फिर उस दिन कुन्‍ती कुमार अर्जुन ने अपने मित्र् के प्रति वैसी कठोर बात क्‍यों कहीं । संजय ने कहा – प्रभो ! चेदिदेश के युवराज, पौरव वृदक्षत्र् तथा बाणों के प्रयोग में कुशल मालवराज सुदर्शन के मारे जाने पर, धृष्‍टप्रदुम्‍न, सात्‍यकि ओर भीमसेन परास्‍त हो जाने पर अर्जुन के मन में बडा कष्‍ट हुआ था । इसके सिवा, युधिष्ठिर के उन व्‍यगं वचनों से उनके मर्मस्‍थल में बडी चोट पहॅुची थी और पहले के दुःखों का स्‍मरण करके भी उनका हदय फट गया था; अतः अधिक खेद के कारण अर्जुन के मन में अभूतपूर्व क्रोध जाग उठा । इसलिये माननीय आचार्य पुत्र अश्‍वत्‍थामा के प्रति, जो कठोर वचन सुनने के योग्‍य नहीं था, अर्जुन ने कायर मनुष्‍य से कहने योग्‍य अश्‍लील, अप्रिय और कठोर बातें कह डाली । नरेश्‍वर ! जब अर्जुन ने सारे मर्मस्‍थानों को विदीर्ण कर देने वाली वाणी द्वारा उससे ऐसी कठोर बात कह दी, तब श्रेष्‍ठ महाधनुर्धर अश्‍वत्‍थामा क्रोध के मारे लंबी सॉस लेने लगा । उस समय द्रोण पुत्र को अर्जुन और श्रीकृष्‍ण पर अधिक क्रोध हुआ, उस पराक्रमी वीर ने सावधानी के साथ रथ पर खडा हो आचमन करके आग्‍नेयास्‍त्र हाथ में लिया, जो देवताओं के लिये भी अत्‍यन्‍त दुर्जन था । फिर धूमरहित अग्नि के समान एक तेजस्‍वी बाण को अभिमंत्र्ति करके शत्रुवीरों का संहार करने वाले आचार्यनन्‍दन अश्‍वत्‍थामा ने सर्वथा क्रोधावेश से युक्‍त हो उसे प्रत्‍यक्ष और परोक्ष शत्रुओं के उददेश्‍य से चला दिया । फिर तो आकाश में बाणों की भयंकर वर्षा होने लगी और सब ओर फैली हुई आग की लपटें अर्जुन पर ही टूट पडी ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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