महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 110 श्लोक 43-63
दशाधिकशततम (110) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
शिनिप्रवर सात्यके ! इस दृष्टि से विचार करने पर मैं समस्त योद्धाओं में किसी को भी तुमसे बढ़कर अपना अतिशय सुहत् नहीं समझ पाता हैं। जो सदा प्रसन्नचित रहता हो तथा जो नित्य-निरन्तर अपने प्रति अनुराग रखता हो, उसी को संकटकाल में किसी महत्वपूर्ण कार्य का सम्पादन करने के लिये निुयक्त करना चाहिये, ऐसा मेरा मत हैं। वार्ष्णैय ! जैसे भगवान् श्रीकृष्ण सदा पाण्डवों के परम आश्रय है; उसी प्रकार तुम भी हो । तुम्हारा पराक्रम भी श्रीकृष्ण के समान ही है। अत: मैं तुम पर जो कार्यभार रख रहा हूं, उसका तुम्हें निर्वाह करना चाहिये। मेरे मनोरथ को सदा सकल बनाने की ही तुम्हें चेष्टा करनी चाहिये। नरश्रेष्ठ ! अर्जुन तुम्हारा भाई, मित्र और गुरु है। वह युद्ध के मैदान में संकटमें पड़ा हुआ है। अत: तुम उसकी सहायता के लिये प्रयत्न करो। तुम सत्यवती, शूरवीर तथा मित्रों को आश्रय अभय देनेवाले हो। वीर! तुम अपने कर्मो द्वारा संसार में सत्यवादी के रुप में विख्यात हो। शैनेय ! जो मित्र के लिये युद्ध करते हुए शरीर का त्याग करता है तथा जो ब्राह्मणों को समूची पृथ्वी का दान कर देता है, वे दोनों समान पुण्य के भागी होते है। हमने सुना है कि बहुत-से राजा ब्राह्मणो को विधिपूर्वक इस समूची पृथ्वी का दान करके स्वर्गलोक में गये हैं। वर्मात्मन् ! इसी प्रकार तुमसे भी मैं अर्जुन की सहायता के लिये हाथ जोड़कर याचना करता हूं। प्रभो ! ऐसा करने में तुम्हे पृथ्वी दान के समान अथवा उससे भी अधिक फल प्राप्त होगा। सात्यके ! मित्रों को अभय प्रदान करनेवाले एक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही सदा हमारे लिये युद्ध में अपने प्राणों का परित्याग करने के लिये उद्यत रहते हैं और दूसरे तुम। युद्ध में सुयश पाने की इच्छा रखकर पराक्रम करनेवाले वीर पुरुष की सहायता कोई शूरवीर पुरुष ही कर सकता हैं। दूसरा कोई निम्न कोटि को मनुष्य उसका सहायक नहीं हो सकता। माधव !ऐसे घोर युद्ध में लगे हुए रणक्षेत्र में अर्जुन का सहायक एवं संरक्षक होने योग्य तुम्हारे सिवा दूसरा कोर्इ् नहीं है।। पाण्डु पुत्र अर्जुन ने तुम्हारे सैकड़ों कार्यो की प्रशंसा करते और मेरा कार्य हर्ष बढ़ाते हुए बारंबार तुम्हारे गुणों का वर्णन किया था। वह कहता था- ‘सात्यकि के हाथों में बड़ी फुर्ती है। वह विचित्र रीति से युद्ध करनेवाला और शीघ्रता पूर्वक पराक्रम दिखाने वाला है। सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञाता, विद्वान एवं शूर-वीर, सात्यकि युद्धस्थल में कभी मोहित नहीं होता है। ‘उसके कंधों महान्, छाती चौड़ी, भुजाएं बड़ी-बड़ी और ठोढ़ी विशाल एवं हष्ट-पुष्ट हैं। वह महाबली, महापराक्रमी, महामनस्वी और महारथी है। ‘सात्यकि मेरा शिष्य और सखा है। मैं उसको प्रिय हूं और वह मुझे। युयुधान मेरा सहायक होकर मेरे विपक्षी कौरवों का संहार कर डालेगा।‘राजेन्द्र ! महाराज ! यदि युद्ध के श्रेष्ठ मुहाने पर हमारी सहायता के लिये भगवान् श्रीकृष्ण, बलराम, अनिरुद्ध, महारथी प्रद्युम्न, गद, सारण अथवा वृष्णिवंशियों सहित साम्ब कवच धारण करके तैयार होंगे, तो भी मैं पुरुषसिंह सत्यपराक्रमी शिनिपौत्र सात्यकि को अवश्य ही अपनी सहायता-के कार्य में नियुक्त करुंगा; क्योंकि मेरी दृष्टि में दूसरा कोई सात्यकि के समान नहीं है’। तात ! इस प्रकार अर्जुन ने द्वैत वन में श्रेष्ठ पुरुषों की सभा में तुम्हारे यथार्थ गुणों का वर्णन करते हुए परोक्षम में मुझ से उपर्युक्त बातें कही थी। वार्ष्णैय ! अर्जुन का, मेरा, भीमसेनका तथा दोनों माद्री कुमारों का तुम्हारे विषयमें जो वैसा संकल्प हैं, उसे तुम्हें व्यर्थ नहीं करना चाहिये।
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