महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 113 श्लोक 1-19
त्रयोदशाधिकशततम (113) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि का द्रोण और कृतवर्मा के साथ युद्ध करते हुए काम्बोजों की सेना के पास पहुंचना
संजय कहते हैं-महाराज ! जब युयुधान युद्ध की इच्छा से आपकी सेना की ओर बढ़े, उस समय अपने सैनिकों से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के रथ का सामना करने-के लिये उनके पीछे-पीछे गये। तदनन्तर समरभूमि में उत्मत होकर लड़नेवाला पाञ्जाल राजकुमार धृष्टद्युम्न तथा राजा वसुदान से पाण्डव सेना में पुकार-कर कहा- 'योद्धाओं ! आओ, दौड़ो और शीघ्रतापर्वूक प्रहार करों, जिससे रणदुर्भद सात्यकि मुखपूर्वक आगे जा सकें। क्योंकि बहुत-से कौरव महारथी इन्हें पराजित करने का प्रयत्न करेंगे। सेनापति की पूर्वोक्त बात दुहराते हुए सभी पाण्डव महारथी बड़े वेग से वहां आ पहुंचे। उस समय हम लोगों ने भी उन्हें जीतने की अभिलाषा से उन पर धावा कर दिया।। युयुधान रथ को देखकर आपके सैनिक शक्खघ्वनि से मिश्रित बाणों का शब्द प्रकट करते हुए उनके सामने दौड़े आये।। तदनन्तर सात्यकि के रथ के समीप महान् कोलाहल मच गया। महाराज ! चारों ओर से दौड़कर आती हुई आपके पुत्र की सेना सात्यकि के बाणों से आच्छादित हो सैकड़ों टूकडियों में बंटकर तितर-भीतर हो गयी। उस सेना के छिन्न–भिन्न होते ही शिनि के महारथी पौत्र ने सेना के मुहाने पर खड़े हुए सात महाधनुर्धर वीरों को मार गिराया। राजेन्द्र ! तदनन्तर विभिन्न जन पदों के स्वामी अन्यान्य वीर राजाओं को भी उन्होंने अपने अग्निसदृश बाणो द्वारा यमलोक पहुंचा दिया। वे एक बाण से सैकड़ों वीरों को और सैकड़ों बाणों से एक-एक वीर को घायल करने लगे। जिस प्रकार भगवान् पशुपति पशुओं का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार सात्यकि ने हाथीसवारों और हाथियों को, घुड़सवारों और घोड़ों को तथा घोड़े और सारथि सहित रथियों को मार डाला। इस प्रकार बाण धारा की वर्षा करने वाले उस अद्रुत पराक्रमी सात्यकि के सामने जाने का साहस आपके कोई सैनिक न कर सके। उस महाबाहु वीर ने अपने बाणों से रौंदकर आपके सारे सिपाहियों को मसल डाला। वे वीर सिपाही ऐसे डर गये कि उस अत्यन्त मानी शूरवीर को देखते ही युद्ध का मैदान छोड़ देते थे।। माननीय नरेश ! सारे कौरव सैनिक सात्यकि के तेज से मोदित हो अकेले होने पर भी उन्हें रुपों में देखने लगे। यहां बहुसंख्यक रथ चूरचूर हो गये थे। उनकी बैठके टूट-फूट गयी थीं। पहियों के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। छत्र और ध्वज छिन्न-भिन्न होकर धरती पर पड़े थे। अनुकर्ष, पताका, शिरस्त्राण, सुवर्णभूषित अंगदयुक्त चन्दनचर्चित भुजाएं, हाथी की सूंड तथा सर्पो के समान मोटे-मोटे उस सब ओर बिखरे पड़े थे। नरेश्वर ! मनुष्यों के विभिन्न अंगों तथा रथ के पूर्वोक्त अवयवों से यहां की भूमि आच्छादित हो गयी थी।। वृषभ समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाले वीरों के गिरे हुए मनोहर कुण्डल सहित चन्द्रमा-जैसे मुखों से वहां कि भूमि अत्यन्त शोभा पा रही थी। अनेकों टुकड़ों में कटकर धराशयी हुए पर्वताकार गजराजों से वहां की भुमि इस प्रकार अत्यन्त शोभा सम्पन्न हो रही थी, मानो यहां बहुत-से पर्वत बिखरे हुए हों।। कितने ही थोड़े सुनहरी रस्सियों तथा मोती की जालियो से विभूषित आच्छादन वस्त्रों से विशेष शोभायमान हो रहे थे। महाबाहु सात्यकि के द्वारा रौंदे जाकर वे धरती पर पड़े थे और उनके प्राण-पखेरु उड़ गये।
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