महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 113 श्लोक 20-40

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त्रयोदशाधिकशततम (113) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व:त्रयोदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद

इस प्रकार आपकी नाना प्रकार की सेना का संहार करके तथा बहुत-से सैनिकों को भगाकर सात्‍यकि आपकी सेना के भीतर घुस गये। तदनन्‍तर जिस मार्ग से अर्जुन गये, उसी से सात्‍यकि ने भी जाने का विचार किया, परंतु द्रोणाचार्य ने उन्‍हें रोक दिया।। अत्‍यन्‍त क्रोध में भरे हुए सत्‍यकनन्‍दन युयुधान द्रोणाचार्य के पास पहुंचकर रुक तो गये; परंतु पीछे नहीं लौटे। जैसे क्षुब्‍ध जलाशय रअपनी तटभूमि तक पहुंचकर फिर पीछे नहीं लौटता है। द्रोणाचार्य ने रणक्षेत्र में महारथी युयुधान को रोककर मर्मस्‍थल को विदीर्ण कर देनेवाले पांच पैने बाणों से उन्‍हें घायल कर दिया। राजन् ! तब सात्‍यकि ने भी समरांगण में शान पर चढ़ाकर तेज किये हुए सुवर्णमय पांखवाले तथा कंक और मोर-की पांखों से सयुक्‍त हुए सात बाणों द्वारा द्रोणाचार्य को क्षत-विक्षत कर डाला। फिर द्रोण ने छ: बाण मारकर घोड़ों और सारथि सहित सात्‍यकि को पीड़ित कर दिया। द्रोणाचार्य के इस पराक्रम को महारथी युयुधान सहन न कर सके। माननीय नरेश ! तदनन्‍तर युयुधान ने पुन: दस बाण मारकर द्रोणाचार्य को घायल कर दिया। फिर एक बाण से उनके सारथि को , चार से चारों घोड़ों को और एक बाण से उनकी ध्‍वजा को युद्धस्‍थल में बींघ डाला। इसके बाद द्रोणाचार्य ने उतावले होकर टिड्डीदलों के समान अपने शीघ्रगामी बाणों द्वारा घोड़े, सारथि, रथ और ध्‍वज सहित सात्‍यकि को आच्‍छादित कर दिया। इसी प्रकार सात्‍यकि ने भी बिना किसी घबराहट के बहुत-से शीघ्रगामी बाणों की वर्षा करके द्रोणाचार्य को ढक दिया। तब द्रोणाचार्य बोले-। 'माधव ! तुम्‍हारे आचार्य अर्जुन तो कायर के समान युद्ध का मैदान छोड़कर चले गये हैं। मैं युद्ध कर रहा था तो भी मुझे छोड़कर मेरी परिक्रमा करते हुए चल दिये। तुम भी अपने आचार्य के समान तुरंत ही समरागण में मुझे छोड़कर चले नहीं जाओंगे तो युद्ध में तत्‍पर रहते हुए मेरे हाथ से आज जीवित बचकर नहीं जा सकोगे'। सात्‍यकि ने कहा-ब्रह्मन ! आपका कल्‍याण हो ! मैं धर्मराज की आज्ञा से धनंजय के मार्ग पर जा रहा है। आप ऐसा करें, जिससे मुझे विलम्‍ब न हो। शिष्‍यगण तो सदा से ही अपने आचार्य के मार्ग का अनुसरण करते आये हैं। अत: जिस प्रकार मेरे गुरुजी गये हैं, उसी प्रकार मैं भी शीघ्र ही चला जाता हूं। संजय कहते हैं-राजन् ! ऐसा कहकर सात्‍यकि सहसा द्रोणाचार्य को छोड़कर चल दिये और सारथि से इस प्रकार बोले-।'सुत ! द्रोणाचार्य मुझे रोकने के लिये सब प्रकार से प्रयत्‍न करेंगें, अत: तुम रणक्षेत्र में सावधान होकर चलो और मेरी यह दूसरी बात भी सुन लो। 'यह अवन्ति निवासियों की अत्‍यन्‍त तेजस्विनि सेना दिखायी देती है। इसके बाद यह दाक्षिणात्‍यों की विशाल सेना हैं। उसके पश्‍चात यह बाह्मिको की विशाल वाहिनी है। 'ये सब-की-सब एक दूसरी का सहारा लेकर युद्ध के लिये डटी हुई है। ये कभी भी समरांगण का परित्‍याग नहीं करेंगी। तुम इन्‍हीं के बीच में प्रसन्‍न्‍तापूर्वक अपने घोड़ों को आगे बढ़ाओं। 'सारथे ! मध्‍यम वेग का आश्रय लेकर तुम मुझे यहां ले चलों, जहां नाना प्रकार के अस्‍त्र-शस्‍त्र लिये युद्ध के लिये उद्यत हुए बाह्मिक देशीय सैनिक दिखायी देते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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