महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 119 श्लोक 40-55
एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
राजन्। वेगशाली सात्यकि ने झुकी हुई गांठ वाले अपने बाणों द्वारा उन सबके बाणों तथा अन्य अस्त्रों को काट गिराया। वे बाण उनके पास तक पहुंच न सके। उन भयंकर वीर ने सब ओर घूम-घूमकर सोने के पुख्ड़ और गीध की पांख वाले तीखे बाणों यवनों के मस्तक, भुजाएं तथा लाल लोहे एवं कांस के बने हुए कवच भी काट डाले। वे बाण उनके शरीरों को विदीर्ण करके पृथ्वी में घुस गये। वीर सात्यकि द्वारा रणभूमि में आहत होकर सैकड़ों म्लेच्छ प्राण त्यागकर धराशायी हो गये। वे कान तक खींचकर छोड़े हुए और अविच्छिन्न गति से परस्पर सटकर निकलते हुए बाणों द्वारा पांच, छ: सात और आठ यवनों को एक ही साथ विदीर्ण कर डालते थे। प्रजानाथ। सात्यकिने आपकी सेना का संहार करते हुए वहां की भूमि को सहस्त्रों काम्बोजों, शकों, शबरों, किरातों और बर्बरों की लाशों से पाटकर अगम्य बना दिया था। वहां मांस और रक्त की कीच जम गयी थी। उन लुटेरों के लंबी दाढ़ीवाले शिरस्त्राण युक्त मुण्डित मस्तकों से आच्छादित हुई रणभूमि पंखहीन पक्षियों से व्याप्त हुई सी जान पड़ती थी। जिनके सारे अंग खून से लथपथ हो रहे थे, उन कबन्धों से भरा हुआ वह सारा रण क्षैत्र लाल रंग के बादलों से ढके हुए आकाश के समान जान पड़ता था। व्रज और विद्युत के समान कठोर स्पर्श वाले सुन्दर पर्व युक्त बाणों द्वारा सात्यकि के हाथ से मारे गये उन यवनों ने वहां की भूमि को अपनी लाशों से ढक लिया।
महाराज। थोड़े से यवन शेष रह गये थे, जो बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाये हुए थे। वे अपने समुदाय से भ्रष्ट होकर अचेत-से हो रहे थे। उन सभी कवचधारी यवनों को युयुधान ने युद्धस्थल में जीत लिया था। वे हाथों और कोड़ों से अपने घोड़ों को पीटते हुए उत्तम वेग का आश्रय ले चारों ओर भय के मारे भाग गये। भरतनन्दन। उस रणक्षैत्र में दुर्जय काम्बोज सेना को, यवन सेना को तथा शकों की विशाल वाहिनी को खदेड़कर सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह सात्यकि आपके सैनिकों पर विजयी हो कौरव सेना में घुस गये और सारथि को आदेश देते हुए बोले-‘आगे बढ़ो’। जिसे पहले दूसरों ने नहीं किया था, समराग्ड़ण में सात्यकि के उस पराक्रम को देखकर चारणों और गन्धर्वों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। प्रजानाथ। अर्जुन के पृष्टरक्षक सात्यकि को जाते देख चारणों को बड़ा हर्ष हुआ और आपके सैनिकों ने भी उनकी बड़ी सराहना की।
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