महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 121 श्लोक 1-22
एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि के द्वारा पाषाणयोधी म्लेच्छों की सेना का संहार और दु:शासन का सेनासहित पलायन
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय। मेरी विशाल सेना को रौंद कर जाते हुए सात्यकि और अर्जुन को देखकर मेरे उन निर्लज्ज पुत्रों ने क्या किया। वे सब-के सब मरना चाहते थे। उस समय युद्धस्थल में अर्जुन के समान ही सात्यकि का चरित्र देखकर उनकी कैसी धारणा हुई थी। वे सेना के बीच में परास्त होकर अपने क्षात्रबल का क्या वर्णन करेंगे समरागण में महायशस्वी सात्यकि किस प्रकार सारी सेना को लांघकर आगे बढ़ गये। संजय। युद्धस्थल में मेरे पुत्रों के जीते जी शिनि नन्दन सात्यकि किस तरह आगे जा सके संजय। यह सब मुझे बताओ। तात। यह मैं तुम्हारे मुंह से अत्यनत विचित्र बात सुन रहा हूं कि शत्रुदल के उन बहुसंख्यक महारथियों के साथ एकमात्र सात्यकि का ऐसा संग्राम हुआ। मैं अपने भाग्यहीन पुत्र के लिये सब कुछ विपरीत ही मान रहा हूं; क्योंकि समरागड़ण अकेले सात्यकि ने बहुत से महारथियों का वध कर डाला है। संजय। और सब पाण्डव तो दूर रहें, क्रोध में भरे हुए अकेले सात्यकि के लिये भी मेरी सेना पर्याप्त नहीं है। जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है, उसी प्रकार सात्यकि विचित्र युद्ध करने वाले विद्वान् द्रोणाचार्य को भी युद्ध में परास्त करके मेरे पुत्रों का वध कर डालेंगे। कृतवर्मा आदि बहुत से शूरवीर समरागड़ण में प्रयत्न करते ही रह गये; परंतु पुरुषप्रवर सात्यकि मारे न जा सके। शिनि के महायशस्वी पौत्र सात्यकिने वहां जैसा युद्ध किया, वैसा तो अर्जुन ने भी नही किया था। संजय ने कहा- राजन्। आपकी खोटी सलाह और दुर्योधन की काली करतूत से यह सब कुछ हुआ है। भारत। मैं जो कुछ कहता हूं, उसे सावधान होकर सुनिये। आपके पुत्र की आज्ञा से युद्ध के लिये अत्यन्त क्रूरतापूर्ण निश्चय करके परस्पर शपथ ले वे सभी पराजित योद्धा पुन: लौट आये। तीन हजार घुड़सवार और हाथीसवार दुर्योधन को अपना अगुआ बनाकर चले। उनके साथ शक, काम्बोज, बाह्रीक, यवन, पारद, कुलिन्द, तंगण, अम्बष्ठ, पैशाच, बर्बर तथा पवतीय योद्धा भी थे। राजेन्द्र। वे सब-के सब कुपित हो हाथों में पत्थर लिये सात्यकिकी ओर उसी प्रकार दौड़े, जैसे फतिंगे जलती हुई आग पर टूटे पड़ते हैं। राजन्। पत्थरों द्वारा करने वाले पर्वतीयों के पांच सौ शूरवीर रथी लिये सुसज्जित हो सात्यकि पर चढ़ आये। तत्पश्चात् एक हजार रथी, सौ महारथी, एक हजार हाथी और दो हजार घुड़सवारों के साथ बहुत से महारथी और असंख्य पैदल सैनिक सात्यकि पर नाना प्रकार के बाणों की वर्षा करते हुए टूट पड़े। भरतवंशी महाराज। ‘इस सात्यकिको मार डालो’ इस प्रकार उन समस्त सैनिकों को प्रेरित करते हुए दु:शासन ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। वहां हमने सात्यकि का अभ्दुत चरित्र देखा कि वे बिना किसी घबराहट के अकेले ही बहुसंख्यक योद्धाओं के साथ युद्ध कर रहे थे। उन्होंने रथ सेना और गज सेना का तथा उन समस्त घुड़ सवारों एवं लुटेरे म्लेच्छों का भी सब प्रकार से संहार कर डाला। वहां चूर-चूर हुए चक्कों, टूटे हुए उत्तमोत्तम आयुधों, टूक-टूक हुए धुरों, खण्डित हुए ईषादण्डों और बन्धुरों, मथे गये हाथियों, तोड़कर गिराये हुए ध्वजों, छिन्न-भिन्न कवचों और विनष्ट हुए सैनिकों की लाशों से वहां की पृथ्वी पट गयी थी।
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