महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 121 श्लोक 23-41
एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
माननीय भरतनरेश। योद्धाओ के हारों, आभूषणों, वस्त्रों और अनुकर्षों से आच्छादित हुई वहां की भूमि तारों से व्याप्त हुए आकाश के समान जान पड़ती थी। भारत। अज्जन और वामन नामक दिग्गज के कुल में उत्पन्न हुए पर्वताकार श्रेष्ठ गजराज भी वहां धराशायी हो गये थे।
नरेश्वर। सुप्रतीक, महापद्य, ऐरावत तथा अन्य पुण्डरीक, पुष्पदन्त और सार्वभौम-(इन) दिग्गजों के कुलों में उत्पन्न हुए बहुतेरे दंतार हाथी भी वहां धरती पर लोट रहे थे। राजन्। वहां सात्यकि ने वनायु, काम्बोज (काबुल) और बाह्रीक देशों में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ अश्वों तथा पहाड़ी घोड़ों को भी मार गिराया। शिनि के उस वीर पौत्र ने अनेक देशों में उत्पन्न हुए विभिन्न जाति के सैकड़ों और हजारों हाथियों का भी संहार कर डाला। वे हाथी जब काल के गाल में जा रहे थे, उस समय दु:शासन ने लूट-पाट करने वाले म्लेच्छों से इस प्रकार कहा ‘धर्मको न जानने वाले योद्धाओ। इस तरह भाग जाने से तुम्हें क्या मिलेगा लौटो और युद्ध करो’। इतने पर भी उन्हें जोर जोर से भागते देख आपके पुत्र दु:शासन ने पत्थरों द्वारा युद्ध करने वाले शूरवीर पर्वतीयों को आज्ञा दी। ‘वीरो। तुमलोग प्रस्तरों द्वारा युद्ध करने में कुशल हो। सात्यकि को इस कला का ज्ञान नही है। प्रस्तर युद्ध को न जानते हुए भी युद्ध की इच्छा रखने वाले इस शत्रुको तुम लोग मार डालो। ‘इसी प्रकार समस्त कौरव भी प्रस्तरयुद्ध में प्रवीण नहीं है। अत: तुम डरो मत। आक्रमण करो। सात्यकि तुम्हें नहीं पा सकता है’। जैसे मन्त्री राजा के पास जाते हैं, उसी प्रकार वे पाषाण योधी समस्त पर्वतीय नरेश सात्यकि की ओर दौड़े। वे पर्वत निवासी योद्धा हाथी के मस्तक के समान बड़े-बड़े प्रस्तर हाथ में लेकर समरागड़ण में युयुधान के सामने युद्ध के लिये तैयार होकर खड़े हो गये।
आपके पुत्र दु:शासन से प्रेरित होकर सात्यकि के वध की इच्छा रखने वाले अन्य बहुतेरे सैनिकों ने भी क्षेपणीयास्त्र उठा कर सब ओर से सात्यकि की सम्पूर्ण दिशाओं को अवरुद्ध कर लिया। प्रस्तर युद्ध की इच्छा रखने वाले उन योद्धाओं के आक्रमण करते ही सात्यकि ने तेज किये हुए बाणों का संधान करके उन्हें उन पर चलाया। पर्वतीय सैनिकों द्वारा की हुई उस भयंकर पाषाण वर्षा को शिनिप्रवर सत्यकि ने अपने सर्पतुल्य नाराचों द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया। माननीय नरेश। जुगनुओं की जमातों के समान उभ्दासित होने वाले उन प्रस्तरचूणों से प्राय: सारी सेनाएं आहत हो हाहाकार करने लगीं। राजन्। तदनन्तर बड़े-बड़े प्रस्तर खण्ड उठाये हुए पांच सौ शूरवीर अपनी भुजाओं के कट जाने से धरती पर गिर पड़े। फिर एक हजार दूसरे योद्धा तथा एक लाख अन्य सैनिक सात्यकितक पहुंचने भी नहीं पाये थे कि अपने हाथ में लिये शिला खण्डों से कटी हुई बाहुओं के साथ ही धराशायी हो गये। सात्यकि के भल्ल से चूर-चूर हुए शिलाखण्डों द्वारा मारे गये म्लेच्छ प्राणशून्य होकर जहां-तंहा पड़े थे। महामना सात्य किद्वारा समरभूमि में मारे जाते हुए वे म्लेच्छ सैनिक उन पर बड़ी भयंकर पत्थरों की वर्षा करते थे।। वे पाषाणों द्वारा युद्ध करने वाले शूरवीर विजय के लिये यत्नशील होकर रणक्षैत्र में डटे हुए थे। उनकी संख्या अनेक सहस्त्र थी; परंतु सात्यकिने उन सबका संहार कर डाला। वह एक अभ्दुत सी घटना हुई।
तदनन्तर पुन: हाथ में लोहे के गोले और त्रिशूल लिये मुंह फैलाये हुए दरद, तंगण, खस, लम्पाक और कुलिन्द देशीय म्लेच्छों ने सात्यकिपर चारों ओर से पत्थर बरसाने आरम्भ किये; परंतु प्रतीकार करने में निपुण सात्यकि ने अपने नाराचों द्वारा उन सबको छिन्न-भिन्न कर दिया। आकाश में तीखे बाणों द्वारा टूटने-फूटने वाले प्रस्तर खण्डों के शब्द से भयभीत हो रथ, घोड़े, हाथी और पैदल सैनिक युद्ध स्थल में इधर-उधर भागने लगे । पत्थर के चूर्णो से व्याप्त हुए मनुष्य, हाथी और घोड़े वहां ठहर न सके, मानो उन्हें भ्रमरों ने डस लिया हो। जो मरने से बचे थे, वे हाथी भी खून से लथपथ हो रहे थे। उनके कुम्भस्थल वदीर्ण हो गये थे। राजन्। बहुत से हाथियों के सिर क्षत-विक्षत हो गये थे। उनके दांत टूट गये थे, शुण्डदण्ड खण्डित हो गये थे। तथा सैकड़ों गजराजों के सात्यकिने अंग भंग कर दिये थे। माननीय नरेश। सात्यकि सिद्धहस्त पुरुष की भांति क्षणभर में पांच सौ योद्धाओं का संहार करके सेना के मध्य भाग में विचरने लगे।। उस समय घायल हुए हाथी युयुधान के रथ को छोड़कर भाग गये। बाणों से चूर-चूर होने वाले पत्थरों की ऐसी ध्वनि सुनायी पड़ती थी, मानो कमलदलों पर गिरती हुई जलधाराओं का शब्द कानों में पड़ रहा हो। आर्य। जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र का गर्जन बहुत बढ़ जाता है, उसी प्रकार सात्यकिके द्वारा पीडित हुई आपकी सेना का महान् कोलाहल प्रकट हो रहा था।
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