महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 122 श्लोक 59-73
द्वाविशत्यधिकशततम (122) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
राजन् ! वे क्रोध में लाल आँखें करके द्रोणाचार्य के सिर को धड़ से अलग कर देना चाहते थे। इसी समय द्रोणाचार्य होश में आ गये और उन्होंने अपने को मार डालने की इच्छा से धृष्टद्युम्न को निकट आया देख महान् टंकार करने वाले अपने धुष को हाथ में लेकर निकट से बेधने वाले बित्ते बराबर बाणों द्वारा उन्हें घायल कर दिया। राजन् ! आचार्य समरांगण में महारथी धृष्टद्युम्न के साथ युद्ध करने लगे। निकट से युद्ध करने वाले द्रोणाचार्य के पास उन्हीं के बनाये हुए वैतस्तिक नामक बाण थे, जिनके द्वारा उन्होंने धृष्टद्युम्न को क्ष्द्वात-विक्षत कर दिया। महाबली और पराक्रमी धृष्टद्युम्न उन बहुसंख्यक बाणों द्वारा घायल होकर अपना वेग भंग हो जोने के कारण उस रथ से कूद पड़े और पुनः अपने रथ पर आरूढ़ हो वे वीर महारथी धृष्टद्युम्न महान् धनुष हाथ में ल्रेकर समरांगण में द्रोणाचार्य को बेधने लगे।
महाराज ! द्रोणाचार्य ने भी अपने बाणों द्वारा द्रुपदपुत्र को घायल कर दिया। जैसे त्रिलोकी के राज्य की इच्छा रखने वाले इन्द्र और प्रह्लाद में परस्पर युद्ध हुआ था, उसी प्रकार उस समय द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न में अत्यन्त अद्भुत युद्ध होने लगा। वे दोनों ही युद्ध की प्रणाली के ज्ञाता थे। अतः विचित्र मण्डल, यमक तथा अन्य प्रकार के मार्गों का प्रदर्शन करते हुए एक दूसरे को बाणों से क्षत-विक्षत करने लगे। वर्षाकाल के दो मेघों के समान बाण - वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न युद्धस्थल में सम्पूर्ण योद्धाओं के मन मोहने लगे। वे दोनोें महामनस्वी वीर अपने बाणों द्वारा आकाश, दिशाओं तथा पृथ्वी को आच्छादित करने लगे। उन दोनों के उस अद्भुत युद्ध की सभी प्राणियों ने भूरि - भूरि प्रशंसा की। महाराज ! सभी क्षत्रियों तथा आपके अन्य सैनिकों ने भी उन दोनों के युद्ध की प्रशंसा की। राजन् ! पान्चाल योद्धा यों कहकर कोलाहल करने लगे कि द्रोणाचार्य समरांगण में धृष्टद्युम्न के साथ उलझे हुए हैं। वे अवश्य ही हमारे अधीन हो जायेंगे। इसी समय द्रोण ने युद्ध में बड़ी उतावली के साथ धृष्टद्युम्न के सारथि का सिर वृक्ष के पके हुए फल के समान धड़ से नीचे गिरा दिया। राजन् ! फिर तो महामना धृष्टद्युम्न के घोड़े भाग चले। उनके भाग जाने पर पराक्रमी द्रोणाचार्य रणभूमि में सब ओर घूम - घूमकर पान्चालों और सृन्जयों के साथ युद्ध करने लगे। इस प्रकार शत्रुओंर का दमन करने वाले प्रतापी द्रोणाचार्य पाण्डवों और पान्चालों को पराजित करके पुनः अपने व्यूह में आकर खड़े हो गये। प्रभो ! उस समय पाण्डव सैनिक युद्ध में उन्हें जीतने का साहस न कर सके।
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