महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 1 श्लोक 21-40
प्रथम (1) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
राजेन्द्र ! जिस समय गडानन्दन भीष्म रथ से गिरे थे, उस समय सूर्य पश्चिम दिशा मे ढल चुके थे । यद्पि महात्मा गडानन्दन भीष्म ने उन सबको युद्ध बंद कर देने की सलाह दी थी, तथापि काल से विवेश शक्ति नष्ट हो जाने के कारण वे भरतश्रेष्ठ क्षत्रिय उनके हितकर वचन की अवहेलना करके अमर्षके वशीभूत हो हाथों मे अस्त्र-शस्त्र लिये तुरंत ही युद्ध के निकल पड़े । पुत्रसहित आपके मोह ( अविवेक ) से और शान्तनु-नन्दन भीष्म का वध हो जाने से समस्त राजाओं सहित सम्पूर्ण कुरूवंशी मृत्यु के अधीन हो गये हैं । जैसे हिसंक जन्तुओं से भरे हुए वन में बिना रक्षककी भेड़ और बकरियॉ भय से उद्विग्न रहती हैं, उसी प्रकार आपके पुत्र और सैनिक देवव्रत रहित हो मन-ही-मन अत्यन्त उद्विग्न हो उठे थे । भरतशिरोमणि भीष्मके धराशायी हो जानेपर कौरव-सेना नक्षत्ररहित आकाश, वायुशून्य अन्तरिक्ष,नष्ट हुई खेतीवाली भूमि, असंस्कृत वाणी तथा राजा बलि के बॉध लिये जानेपर नायकविहीन हुई असुरों की सेना के समान अद्विग्न, असमर्थ और श्रीहीन हो गयी । गगांनन्दन भरतश्रेष्ठ भीष्मके धराशायी होनेपर भरत-वंशियों की सेना विधवा सुन्दरीके समान, जिसका पानी सूख गया हो, उस नदी के समान, जिसे भेड़ियोंने वनमें घेर रक्खा हो और जिसका साथी यूथप मार डाला गया हो, उस चितकबरी मृगीके समान तथा शरभने जिसमें रहनेवाले सिंह को मार डाला हो, उस विशाल कन्दराके समान भयभीत, विचलित और श्रीहीन जान पड़ती थी ।। वीर और बलवान् पाण्डव अपने लक्ष्यको सफलतापूर्वक मार गिरानेवाले थे, उनके द्वारा अत्यन्त पीडि़त होकर आपकी सेना महासागर में चारो और से वायुके थपेड़े खाकर टूटी हुई नौका के समान बड़ी विपत्तिमें फँस गयी। उस समय आपकी सेनाके घोड़े, रथ और हाथी सब अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे । उसके अधिकांश सैनिक अपने प्राण खो चुके थे । उसका दिल बैठ गया था और वह अत्यन्त दीन हो रही थी । उस सेनाके भिन्न-भिन्न सैनिक, नरेशगण अत्यन्त भयभीत हो देवव्रत भीष्मके बिना मानो पाताल में डूब रहे थे । उस समय कौरवों ने कर्ण का स्मरण किया । जैसे गृहस्थका मन अतिथिकी ओर तथा आपत्तिमें पड़े हुए मनुष्यका मन अपने मित्र या भाई-बन्धुकी ओर जाता है, उसी प्रकार कौरवोंका मन समस्त शस्त्रधारियोंमे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी वीर कर्णकी ओर गया; क्योकि वही भीष्मके समान पराक्रमी समझा जाता था । भारत ! वहाँ सब राजा ‘कर्ण ! कर्ण !’ की पुकार करने लगे । वे कहने लगे कि ‘राधानन्दन सूतपुत्र कर्ण हमारा हितैषी है । हमारे लिये अपना शरीर निछावर किये हुए है । अपने मन्त्रियों और बन्धुओंके साथ महायशस्वी कर्ण ने दस दिनों तक युद्ध नही किया है । उसे शीध्र बुलाओ । देर न करो । राजन ! बात यह हुई थी कि जब बल और पराक्रम से सुशोभित रथियोंकी गणना की जा रही थी, उस समय समस्त क्षत्रियोंके देखते-देखते भीष्मजीने महाबाहु नरश्रेष्ठ कर्ण को अर्धरथी बता दिया । यदपि वह दो रथियों के समान है । रथियों और अतिरथियोंकी संख्यामें वह अग्रगण्य और शूरवीरके सम्मनका पात्र है । रणक्षेत्रमें असुरोंसहित सम्पूर्ण देवेश्ररोंके साथ भी वह युद्ध करने का उत्साह रखता है । राजन ! अर्धरथी बताने के कारण ही क्रोधवश उसने गगानन्दन भीष्मसे कहा – ‘कुरूनन्दन ! आपके जीते-जी मैं कदापि युद्ध नही करूँगा । कौरव ! यदि आप उस महा-समरमें पाण्डुपुत्रों को मार डालेंगे तो मैं दुर्योधन की अनुमति लेकर वन को चला जाऊँगा । ‘अथवा यदि पाण्डवोंके द्वारा मारे जाकर आप स्वर्ग-लोक में पहॅुच गये तो मैं एकमात्र रथकी सहायतासे उन सबको मार डालूँगा, जिन्हें आप रथी मानते हैं’ ।
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