महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 1 श्लोक 41-53
प्रथम (1) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
ऐसा कहकर महाबाहु महायशस्वी कर्ण आपके पुत्रकी सम्मति ले दस दिनोंतक युद्धमें सम्मिलित नही हुआ । भारत ! समरभूमिमें पराक्रम प्रकट करने वाले अनन्त पराक्रमी भीष्म ने युद्धस्थल में पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरके बहुत से योद्धाओं को मार डाला । उन महापराक्रमी सत्यप्रतिज्ञ शूरवीर भीष्म के मारे जानेपर आपके पुत्रोंने कर्णका उसी प्रकार स्मरण किया, जैसे पार जानेकी इच्छावाले पुरूष नावकी इच्छा करते हैं । समस्त राजाओं सहित आपके पुत्र और सैनिक ‘हा कर्ण’ कहकर विलाप करने लगे और बोले – ‘कर्ण ! तुम्हारे पराक्रमका यह अवसर आया है’ । इस प्रकार आपके महाबली योद्धा लोग राधानन्दन सूत-पुत्र कर्णको, जो दुर्योधन के लिये अपना शरीर निछावर किये बैठा था, एक साथ पुकारने लगे । राजन ! कर्णने जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे अस्त्र–विधाकी शिक्षा प्राप्त की है और उसका पराक्रम दुर्निवार्य है । इसलिये हमलोगोंका मन कर्णकी ओर गया, ठीक वैसे ही, जैसे बड़ी भारी आपत्ति के समय मनुष्यका मन अपने मित्रों तथा सगे-सम्बन्धियों की ओर जाता हैं । राजन ! जैसे भगवान विष्णु देवताओं की सदा अत्यन्त महान् भय से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कर्ण हमें भारी भय से उबारने में समर्थ है । वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय ! जब संजय इस प्रकार बार-बार कर्णका नाम ले रहा था, उस समय राजा धृतराष्ट्रने विषधर सर्पके समान उच्छ्वास लेकर इस प्रकार कहा । धृतराष्ट्रने कहा- संजय ! जब तुमलोगोंका मन विकर्तनपुत्र कर्णकी ओर गया, तब क्या तुमने शरीर निछावर करने वाले सूतपुत्र राधानन्दन कर्ण को वहॉ देखा ? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि संकट में पड़कर घबराये हुए और भयभीत होकर अपनी रक्षा चाहते हुए कौरवोंकी प्रार्थना को सत्यपराक्रमी कर्णने निष्फल कर दिया हो ? भीष्म के मारे जानेपर युद्धस्थल में कौरवों के पक्ष में जो कमी आ गयी थी, क्या उसे धनुर्धारियों में श्रेष्ठ कर्णने पूरा कर दिया ? । क्या उस खण्डित अंशकी पूर्ति करके कर्णने शत्रुओं के मन में भय उत्पन्न किया ? संजय ! जगत् मे कर्ण को ‘पुरूषसिंह’ कहा जाता है । क्या उसने रणभूमि में शोकार्त होकर विशेषरूपसे क्रन्दन करने वाले अपने उन बन्धुजनोंकी रक्षा एवं कल्याण के लिये अपने प्राणों का परित्याग करके मरे पुत्रों की विजयाभिलाषाको सफल किया ?
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