महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 84 श्लोक 18-35
चतुरषीतितम (84) अध्याय: द्रोण पर्व ( प्रतिज्ञा पर्व )
अर्जुन के बैठने के बाद सात्याकि और श्रीकृष्ण भी उस रथ पर आरूए हो गये, मानो राजा शर्याति के यज्ञ में आते हुए इन्द्र देव के साथ दोनो अश्रिनीकुमार आ रहे हो। उन घोडो की रास पकडने की कला में सर्वश्रेष्ठ भगवान् गोविन्द ने रथ की बागडोर अपने हाथ में ली, ठीक उसी प्रकार जैसे, वृत्रासुर का वध करने के लिये जाने वाले इन्द्र के रथ की बागडोर मातलिने पकडी थी। सात्यकि और श्रीकृष्ण दोनों के साथ उस श्रेष्ठ रथपर बैठे हुए अर्जुन बुध और शुक्र के साथ स्थित हुए अन्धकार-नाशक चन्द्रमा के समान जान पडते थे। शत्रु समूह का नाश करने वाले अर्जुन जब सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ सिंधुराज जयद्रथ का वध करने की इच्छा से प्रस्थित हुए, उस समय वरूण और मित्र के साथ तारकामय संग्राम में जाने वाले इन्द्र के समान सुशोभित हुए । तदनन्तर रणवाद्यों के घोष तथा शुभ एवं माग्डलिक स्तुतियो के साथ यात्रा करते हुए वीर अर्जुन की मागघजन स्तुति करने लगे। विजय सूचक आशीर्वाद तथा पुण्याहवाचन के साथ सूत मागध एवं बन्दीजनों को शब्द रणवाद्यों की ध्वनि से मिलकर उन सबकी प्रसन्नता को बढा रहा था। अर्जुन के प्रस्थान करने पर पीछे से मग्डलमय पवित्र एवं सुगन्धयुक्त वायु बहने लगी, जो अर्जुन का हर्ष बढाती हुई उनके शत्रुओं का शोषण कर रही थी। माननीय महाराज। उस समय बहुत-से ऐसे शुभ शकुन प्रकट हुए, जो पाण्डवों की विजय और अपके सैनिकों की पराजय की सूचना दे रहे थे। अर्जुन ने अपने दाहिने प्रकट होने वाले उन विजयसूचक शुभ लक्षणों को देखकर महाधनुर्धर सात्यकिसे इस प्रकार कहा-। शिनिप्रवर युयुधान। आज जैसे ये शुभ लक्षण दिखायी देते है, उनसे युद्ध मेरी निश्रित विजय दॄष्टिगोचर हो रही है। अतः मै वही जाउॅंगा , जहां सिधुंराज जयद्रथ यमलोक में जाने की इच्छा से मेरे पराक्रम की प्रतीक्षा कर रहा है। मेरे लिये सिधुंराज जयद्रथ का वध् जैसे अत्यन्त महान् कार्य है, उसी प्रकार धर्मराज रक्षा भी परम महत्वपूर्ण कर्तव्य है। महाबहो। आज तुम्ही राजा युधिष्ठिर की सब ओर से रक्षा करो । जिस प्रकार वे मेरे द्वारा सुरक्षित होते है, उसी प्रकार तुम्हारे द्वारा भी उनकी रक्षा हो सकती है। मै संसार में ऐसे किसी वीर को नही देखता , जो युद्ध में तुम्हें पराजित कर सके । मुम संग्राम भूमि में साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण के समान हो। साक्षात् देवराज इन्द्र भी तुम्हें नही जीत सकते । नरश्रेश्ठ । इस कार्य के लिये मै। तुम पर अथवा महारथी प्रद्युम्न पर ही पूरा भरोसा करता हूं। सिंधुराज जयद्रथ का वध तो मैं किसी की सहायता अपेक्षा किये बिना ही कर सकता हूं। सात्वतवीर। तुम किसी प्रकार भी मेरा अनुसरण न करना । तुम्हें सब प्रकार से राजा युधिष्ठिर की ही पूर्णरूप से रक्षा करनी चाहिये। जहां महाबाहु भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान है और मैं भी उपस्थित हूं वहां अवश्य ही कोई बिगड नहीं सकता है।अर्जुन के ऐसा कहने पर शत्रुवीरों को संहार करने वाले सात्यकि बहुत अच्छा कहकर जहां राजा युधिष्ठिर थे, वही चले गये।
« पीछे | आगे » |