महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 102 श्लोक 1-20
द्वîधिकशततम (102) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध तथा भीमसेन के द्वारा गजसेना का संहार धृतराष्ट्र बोले- संजय ! महाधनुर्धर द्रोण और पाण्डुनन्दन अर्जुन - इन दोनों पुरूषसिंहों ने रणक्षेत्र में किस प्रकार प्रयत्नपूर्वक एक दूसरे का सामना किया।
सूत ! युद्धस्थल में बुद्धिमान् द्रोणाचार्य को पाण्डुपुत्र अर्जुन सदा ही प्रिय लगते है और अर्जुन को भी आचार्य रणक्षेत्र में सदा ही प्रिय रहे है। उस दिन संग्राम भूमि में दो प्रचण्ड सिंहों की भाँति हर्ष और उत्साह में भरे हुए वे दोनों रथी द्रोणाचार्य और धनंजय किस प्रकार प्रयत्नपूर्वक एक दूसरे से युद्ध करते थे। संजय ने कहा - महाराज ! समरभूमि में द्रोणाचार्य अर्जुन को अपना प्रिय नहीं समझते है और अर्जुन भी क्षत्रिय धर्म को आगे रखकर युद्धस्थल में गुरू को अपना प्रिय नहीं मानते है। राजन् ! क्षत्रिय लोग रणक्षेत्र में आपस में किसी को नहीं छोड़ते है।
वे पिता और भाइयों के साथ भी *मर्यादा शून्य होकर युद्ध करते है। भारत ! उस रणक्षेत्र में अर्जुन ने द्रोणाचार्य को तीन बाणों से घायल किया; परंतु अर्जुन के धनुष से छूटे हुए उन बाणों को युद्धस्थल में द्रोणाचार्य ने कुछ भी नहीं समझा।
तब अर्जुन ने समरभूमि में अपने बाणों की वर्षा से पुनः द्रोणाचार्य को ढक दिया। यह देख वे रोष से जल उठे, मानो वन में दावानल प्रज्वलित हो उठा हो। भरतनन्दन ! राजेन्द्र ! तब द्रोणाचार्य ने युद्ध में झुकी हुई गाँठवाले बाणों से अर्जुन को शीघ्र ही आच्छादित कर दिया। राजन् ! तब राजा दुर्योधन ने सुशर्मा को समरभूमि में द्रोणाचार्य के पृष्ठभाग की रक्षा के लिये प्रेरित किया। उसकी आज्ञा पाकर त्रिगर्तराज सुशर्मा ने भी समर में क्रोधपूर्वक धनुष को अत्यन्त खींचकर लोहमुख बाणों के द्वारा अर्जुन को ढक दिया।
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महाराज ! जैसे शरद ऋतु के आकाश में हंस उड़ते दिखायी देते है, उसी प्रकार उन दोनों के छोड़े हुए बाण आकाश में सुशोभित हो रहे थे। प्रभो ! वे बाण सब ओर से कुन्तीकुमार अर्जुन के ऊपर पड़कर उनके शरीर में धँसने लगे, मानो फलों के भार से झुके स्वादिष्ट वृक्ष पर चारों ओर से पक्षी टूटे पड़ते हों। तब रथियों में श्रेष्ठ अर्जुन ने सिंहनाद करके समराडंगण में पुत्रसहित त्रिगर्तराज सुशर्मा को अपने बाणों से घायल कर दिया। जैसे प्रलयकाल में साक्षात् काल सबको मार डालता है, उसी प्रकार अर्जुन की मार खाकर त्रिगर्तदेशीय सैनिक मरने का निश्चय करके पुनः उन्हीं पर टूट पडे़। उन्होंने पाण्डुनन्दन अर्जुन के रथ पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। राजेन्द्र ! अर्जुन ने सब ओर से होने वाली उस बाण - वर्षा को उसी प्रकार ग्रहण किया, जैसे पर्वत जल की वर्षा को धारण करता है। उस युद्ध में हमने अर्जुन के हाथों की अद्भुत फुर्ती देखी, जैसे हवा बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार बहुत से योद्धाओं द्वारा की हुई उस दुःसह बाण वर्षा का उन्होंने अकेेले ही निवारण कर दिया। महाराज ! अर्जुन के उस पराक्रम से देवता और दानव सभी संतुष्ट हुए। भारत ! तदनन्तर क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने युद्ध के मुहाने पर त्रिगर्त-सेनाओं को लक्ष्य करके वायव्यास्त्र का प्रयोग किया; फिर तो आकाश को विक्षुब्ध कर देने वाली वायु प्रकट हुई, जो वृक्षों को गिराने और सैनिकों को नष्ट करने लगी। महाराज ! तदनन्तर द्रोणाचार्य ने अत्यन्त भयंकर वायव्यास्त्र को देखकर उसका निवारण करने के लिये भयानक पर्वतास्त्र का प्रयोग किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ *यहाँ पर मर्यादा शब्द सम्बन्ध की मर्यादा के लिये प्रयुक्त हुआ है।