महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 12 श्लोक 22-42
द्वादश (12) अध्याय: भीष्म पर्व (भूमि पर्व)
उष्ण के बाद प्रावरक, प्रावरक के बाद अन्धकारक और अन्धकारक के बाद उत्तम मुनिदेश बताया गया हैं। मुनिदेश के बाद जो देश हैं, उसे दुन्दुभिस्वन कहते हैं। वह सिद्धों और चरणों से भरा हुआ हैं। जनेश्वर! वहां के लोग प्राय: गोरे होते हैं। महाराज! इन सभी देशों में देवता ओर गन्धर्व निवास करते हैं। पुष्करद्वीप में पुष्कर नामक पर्वत है, जो मणियों तथा रत्नों से भरा हुआ है। वहां स्वयं प्रजापति भगवान् ब्रह्मा नित्य निवास करते हैं। जनेश्वर! सम्पूर्ण देवता और महर्षि मनोनुकुल वचनों द्वारा प्रतिदिन उनकी पुजा करते हुए सदा उन्हीं की उपासना में लगे रहते हैं। जम्बूद्वीप से अनेक प्रकार के रत्न अन्यान्य सब द्वीपों में वहां की प्रजाओं के उपयोग के लिये भेज जाते हैं। कुरूश्रेष्ठ! ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रियसंयम के प्रभाव से उन सब द्वीपों की प्रजाओं के आरोग्य और आयु का प्रमाण जम्बूद्वीप की अपेक्षा उत्तरोत्तर दूना माना गया हैं। भरतवंशी नरेश! वास्तव में इन देशों में एक ही जनपद हैं। जिन द्वीपों में अनेक जनपद बताये गये हैं, उनमें भी एक प्रकार का ही धर्म देखा जाता है।
महाराज! सबके ईश्वर प्रजापति ब्रह्मा स्वयं ही दण्ड लेकर इन द्वीपों की रक्षा करते हुए इनमें नित्य निवास करते हैं। नरश्रेष्ठ! प्रजापति ही वहां के राजा हैं। वे कल्याणस्वरूप होकर सबका कल्याण करते हैं। राजन्! वे ही पिता और प्रपितामह हैं। जड से लेकर चेतन तक समस्त प्रजा की वे ही रक्षा करते हैं। महाबाहु कुरूनन्दन! यहां की प्रजाओं के पास सदा पकापकाया भोजन स्वयं उपस्थित हो जाता हैं और उसी को खाकर वे लोग रहते हैं। उसके बाद समानामवाली लोगों की वस्ती देंखी जाती है। महाराज! वह चौकोर बसी हूई है। उसमें तैंतीस मण्डल हैं। कुरूनन्दन! भरतश्रेष्ठ! वहां लोकविख्यात वामन, ऐरावत, सुप्रतीक और अञ्जन- ये चार दिग्गज रहते हैं। राजन्! इनमें से सुप्रतीक नामक गजराज, गण्डस्थल से मद की धारा बहती रहती हैं, उसका परिमाण कैसा और कितना है, यह मैं नहीं बता सकता। वह नीचे-ऊपर तथा अगल-बगल में सब ओर फैला हुआ है। वह अपरिमित है। वहां सब दिशाओं से खुली हुई हवा आती है। उसे वे चारों दिग्गज ग्रहण करके रोक रखते हैं। फिर वे विकसित कमल-सदृश परम कान्तिमान् शुण्डदण्ड के अग्रभाग से उस हवा के सैकड़ों भागों में करके तुरंत ही सब ओर छोड़ते हैं, यह उनका नित्य का काम हैं।
महाराज! सांस लेते हुए उन दिग्गजों के मुख से मुक्त होकर जो वायु यहां आती हैं, उसी से सारी प्रजा जीवन धारण करती है। धृतराष्ट्र बोले- संजय! तुमने द्वीपों की स्थिति के विषय में तो बडे़ विस्तार के साथ वर्णन किया है। अब जो अन्तिम विषय- सूर्य, चन्द्रमा तथा राहु का प्रमाण बताना शेष रह गया है, उसका वर्णन करो। संजय बोले- महाराज! मैंने द्वीपों का वर्णन तो कर दिया। अब ग्रहों का यथार्थ वर्णन सुनिये। कौरवश्रेष्ठ! राहु की जितनी बड़ी लंबाई-चौड़ाई सुनने में आती है, वह आपको बताता हूं। महाराज! सुना है कि राहु ग्रह मण्डलाकार है। निष्पाप नरेश! राहु ग्रह का व्यासगत विचार बारह हजार योजन है और उसकी परिचित का विस्तार छत्तीस हजार योजन हैं। पौराणिक विद्वान् उसकी विपुलता (मोटाई) छ: हजार योजन की बताते हैं। राजन्! चन्द्रमा का व्यास ग्यारह हजार योजन हैं।
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