महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 89-109
त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
इसी समय भगवान् श्रीकृष्ण उस युद्ध में राधानन्दन कर्ण के पास गये। वहां जाकर उन गजाग्रज ने पाण्डवों के हित के लिये उससे इस प्रकार कहा। ‘कर्ण ! मैंने सुना है, तुम भीष्म से द्वेष होने के कारण युद्ध नही करोगे। राधानन्दन ! ऐसी दशा में जबतक भीष्म मारे नही जाते हैं, तब तक हम लोगों का पक्ष ग्रहण कर लो। ‘राधेय! जब भीष्म मारे जायें, उसके बाद तुम यदि ठीक समझो तो युद्ध में पुनः दुर्योधन की सहायता के लिये चले जाना’। कर्ण बोला- केशव! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं दुर्योधन की हितैषी हूं। उसके लिये अपने प्राणों को निछावर किये बैठा हूं; अतः मै उसका अग्रिम कदापि नही करूंगा । संजय कहते हैं- भारत! कर्ण की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण लौट आये और युधिष्ठिर आदि पाण्डवों से जा मिले ।तदनन्तर ज्येष्ठ पाण्ड युधिष्ठिर ने सेना के बीच में खडे़ होकर पुकारा- ‘जो कोई वीर सहायता के हमारे पक्ष में आना स्वीकार करे, उसे मैं भी स्वीकार करूंगा । उस समय आपके पुत्र युयुत्सुने पाण्डवों की ओर देखकर प्रसन्नचित्त हो धर्मराज कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा- ।‘महाराज! निष्पाप नरेश! यदि आप मुझे स्वीकार करें तो मैं आप लोगों के लिये युद्ध में धृतराष्ट्र के पुत्रों से युद्ध करूंगा। युधिष्ठिर बोले- युयुत्सो! आओ, आओ। हम सब लोग मिलकर तुम्हारे इन मुर्ख भाईयों से युद्ध करेंगे। यह बात हम और भगवान् श्रीकृष्ण सभी कह रहे है ।महाबाहो! मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये युद्ध करो। राजा धृतराष्ट्र की वंशपरम्परा तथा पिण्डोदक-क्रिया तुमपर ही अवलम्बित दिखायी देती है ।महातेजस्वी राजकुमार ! हम तुम्हें अपनाते हैं। तुम भी हमे स्वीकार करो। अत्यन्त क्रोधी दुर्बुद्धि दुर्योधन अब इस संसार में जीवित नही रहेगा।
संजय कहते है- राजन्! तदनन्तर युयुत्सु युधिष्ठिर की बात को सच मानकर आपके सभी पुत्रों को त्याग कर डंका पीटता हुआ पाण्डवों की सेना में चला गया ।वह दुर्योधन के पापकर्म की निन्दा करता हुआ युद्ध का निश्चय करके पाण्डवों के साथ उन्हीं की सेना में रहने लगा।। तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने भाईयों सहित अत्यन्त प्रसन्न हो सोने का बना हुआ चमकीला कवच धारण किया।। फिर वे सभी श्रेष्ठ पुरूष अपने-अपने रथ पर आरूढ हुए; इसके बाद उन्होनें पुनः शत्रुओं के मुकाबले में पहले की भॉति ही अपनी सेना की व्यूह-रचना की। उन श्रेष्ठ पुरूषों ने सैकडों दुन्दुमियां और नगारे बजाने तथा अनेक प्रकार से सिंह-गर्जनाएं की ।पुरूषसिंह पाण्डवों को पुनः रथ पर बैठे देख धृष्टघुम्न आदि राजा बडे़ हुए। माननीय पुरूषों का सम्मान करने वाले पाण्डवों के उस गौरवों को देखकर सब भूपाल उनकी बडी प्रशंसा करने लगे। सब राजा महात्मा पाण्डवों के सौहार्द, कृपाभाव, समयो-चित कर्तव्य के पालन तथा कुटुम्बियों के प्रति परम दयाभाव की चर्चा करने लगे । यशस्वी पाण्डवों के लिये सब और से उनकी स्तुति प्रशंसा से भरी हुई ‘साधु-साधु’ की बातें निकलती थी। उन्हें ऐसी पवित्र वाणी सुनने को मिलती थी, जो मन और ह्रदय के हर्ष को बढाने वाली थी । वहां जिन-जिन म्लेच्छों और आर्यो ने पाण्डवों का वह बर्ताव देखा तथा सुना, वे सब गदगदकण्ठ होकर रोने लगे ।तदनन्तर हर्ष में भरे हुए सभी मनस्वी पुरूषों ने सैकड़ों और हजारों बड़ी-बड़ी भेरियों तथा गोदुग्ध के समान श्वेत शंको को बजाया।
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