महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 46 श्लोक 40-49
षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
भरतनन्दन! लहुलुहान होकर कष्ट पाते हुए वे समस्त घायल सैनिक अपनी और आपके पुत्रों की अत्यन्त निन्दा करते थे। माननीय महाराज दूसरे शूरवीर क्षत्रिय आपस में वैर बांधे हुए उस घायल अवस्था में भी न हथियार छोड़ते थे और न क्रन्द्रन ही करते थे। वे बार-बार उत्साहित होकर एक दूसरे को डांट बताते और क्रोधपूर्वक होठों को दांत से दबाकर भौहे टेढी करके परस्पर दृष्टिपात करते थे। धैर्य और दृढतापूर्वक धारण किये रहनेवाले दूसरे महाबली वीर बाणों से आघात से पीड़ित हो क्लेश सहन करते हुए भी मौन ही रहते थे-अपनी वेदना प्रकाशित नही करते थे। महाराज ! कुछ वीर पुरूष अपना रथ मग्न हो जाने के कारण युद्ध में पृथ्वी पर गिरकर दूसरे का रथ मांग रहे थे, इतने ही में बडे़-बडे़ हाथियों के पैरो से वे कुचल गये। उस समय उनके रक्तरंजित शरीर फूले हुए पलाश के समान शोभा पा रहे थे। उन सेनाओं में अनेकानेक भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे। बडे़-बडे़ वीरों का विनाश करनेवाला उस महाभयानक संग्राम में पिता ने पुत्रों को, पुत्र ने पिता को, भानजे ने मामा को, मामा ने भानजे को, मित्र ने मित्रों को तथा सगे-संबंधीने अपने सगे सम्बन्धी को मार डाला। इस प्रकार उस मर्यादाशून्य भयानक संग्राम में कौरवों का पाण्डवों के साथ घोर युद्ध हो रहा था। इतने ही मैं सेनापति भीष्म के पास पहुंचकर पाण्डवों की सारी सेना कांपने लगी। भरतश्रेष्ठ ! महाबाहु भीष्म अपने विशाल रथपर बैठकर चांदी के बने हुए पांच तारों से युक्त तालांकिंत ध्वज के द्वारा भैरू के शिखरपर स्थित हुए चन्द्रमाके समान शोभा पा रहे थे।
« पीछे | आगे » |