महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-20
एकोनसप्ततितम (69) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
संजय कहते है- महाराज! व्ह रात बीतनेपर जब सूर्योदय हुआ, तब दोनों ओर की सेनाएँ आमने-सामने आकर युद्व के लिए डट गयी। सबने एक दूसरे को जीतने की इच्छा से अत्यन्त क्रोध में कुमन्त्रणा के फलस्वरूप् आपके पुत्र और पाण्डव एक दूसरे को देखकर कुपित हो सब-के-सब अपने सहायकों के साथ आकर सेना की व्यूह-रचना करके हर्ष और उत्साह में भरकर परस्पर प्रहार करने को उद्यत हो गये। राजन्! भीष्म सेना का मकरव्यूह बनाकर सब ओर से उसकी रक्षा करने लगे। इसी प्रकार पाण्डवों ने भी अपने व्यूह की रक्षा की। स्वयं अजातशत्रु युधिष्ठिर ने घौम्य मुनिकी आज्ञा से श्येनव्यूह की रचना करके शत्रुओं के ह्नदय में कँपकँपी पैदा की दी। भारत! अग्नि चयनसम्बन्धी कमों में रहते हुए उन्हें श्येनव्यूह का विशेष परिचय था। आपके बुद्विमान् पुत्र की सेना का मकरनामक महाव्यूह निर्मित हुआ था। द्रोणाचार्य की अनुमति लेकर उसने स्वयं सारी सेनाओं द्वारा उस व्यूह की रचना की थी। फिर शान्तनुनन्दन भीष्म ने व्यूह की विधि के अनुसार निर्मित हुए उस महाव्यूह का स्वयं भी अनुसरण किया था। महाराज! रथियों में श्रेष्ठ आपके ताऊ भीष्म विशाल रथसेना से घिरे हुए युद्व के लिए निकले। फिर यथाभाग खड़े हुए रथी, पैदल, हाथीसवार और घुडसवार सब एक दूसरे का अनुसरण करते हुए चल दिये। शत्रुओं को युद्व के लिये उद्यत हुए देख यशस्वी पाण्डव युद्व में अजेय व्यूहराज श्येन के रूप में संगठित हो शोभा पाने लगे। उस व्यूह के मुख भाग में महाबली भीमसेन शोभा पा रहे थे। ने़त्रों के स्थान में दुर्धर्ष वीर शिखण्डी तथा द्रुपदकुमार भृष्टद्यमन खड़े थे। शिरोभाग में सत्य पराक्रमी वीर सात्यकि और ग्रीवाभाग में गाण्डीव-धनुष की टंकार करते हुए कुन्तीकुमार अर्जुन खड़े हुए। पुत्रसहित श्रीमान् महात्मा द्रुपद एक अक्षौहिणी सेना के साथ युद्व में बायें पंख के स्थान में खडे़ थे। एक अक्षौहिणी सेना के अधिपति केकय दाहिने पंख में स्थित हुए। द्रौपदी के पाँचों पुत्र और पराक्रमी सुभद्राकुमार अभिमन्यु- ये पृष्ठभाग में खड़े हुए। उत्तम पराक्रम से सम्पन्न स्वयं श्रीमान् वीर राजा युधिष्ठिर भी अपने दो भाई नकुल और सहदेव के साथ पृष्ठभाग में ही सुशोभित हुए। तद्नन्तर भीमसेन ने रणक्षेत्र में प्रवेश करके मकरव्यू हके मुखभाग में खडे हुए भीष्म को अपने सायकों से आच्छांदित कर दिया। भारत ! तब उस महासमर में पाण्डवों की उस व्यूहबद्व सेना को मोहित करते हुए भीष्म उसपर बड़े-बड़े अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। उस समय अपनी सेनाको मोहित होती देख अर्जुन ने बडी उतावली के साथ युद्व के मुहानेपर एक हजार बाणों की वर्षा करके भीष्म को घायल कर दिया। संग्राम में भीष्म के छोडे हुए सम्पूर्ण अस्त्रोंका निवारण करके हर्ष में भरी हुई अपनी सेना के साथ वे युद्व के लिये उपस्थित हुए। तब बलवानों में श्रेष्ठ महारथी राजा दुर्योंधन ने पहले जो अपनी सेना का घोर संहार हुआ था, उसको दृष्टि में रखते हुए और युद्व में भाइयों के वध का स्मरण करते हुए भरद्वाज नन्दन द्रोणाचार्य से कहा- निष्पाप आचार्य ! आप सदा ही मेरा हित चाहने वाले है। हम लोग आप तथा पितामह भीष्म की शरण लेकर देवताओं को भी समरभूमि में जीतने की अभिलाषा रखते है, इसमें सशंय नहीं है। फिर जो बल और पराक्रम में हीन है, उन पाण्डवों को जीतना कौन बडी बात है। आपका कल्याण हो। आप ऐसा प्रयत्न करें जिससे पाण्डव मारे जायँ।
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