महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 96 श्लोक 57-74
षण्णवतितम (96) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)
आर्य ! समरभूमि में गिरे हुए बाण, तोमर, शक्ति, ऋष्टि, खंडग, पटिट्श, प्रास, लोहे के भाले, फरसे, परिघ, भिन्दिपाल तथा शतध्नी (तोप)- इन अस्त्र शस्त्रों तथा इनके द्वारा विदीर्ण हुए मृत शरीरों से सारी पृथ्वी पट गयी थीं।शत्रुओं का नाश करने वाले महाराज ! वहाँ पृथ्वी पर कुछ ऐसे लोग गिरे थे, जिनके मुख से शब्द नहीं निकल पाता था। कुछ ऐसे थे, जो बहुत थोड़ा बोल पाते थे। प्रायः सभी लोग खून से लथपथ हो रहे थे और बहुत से ऐसे शरीर पड़े थे, जो सर्वथा प्राणहीन हो चुके थे। इन सबके द्वारा वहाँ की भूमि मानो चुन दी गयी थी।भारत ! रणभूमि में गिरे हुए बैल के समान विशाल नेत्रों वाले वेगशाली वीरों की दस्तानों और केयूरों से युक्त चन्दन चर्चित भुजाओं से, हाथी की सूँड़ के समान प्रतीत होने वाली छिन्न-भिन्न हुई जाँघों से तथा उत्तम चूड़ामणि (मुकुट) से आबद्ध कुण्डलमण्डित मस्तकों से वहाँ की भूमि अ˜ुत शोभा पा रही थी।रक्त से सनकर इधर-उधर बिखरे हुए सुवर्णमय कवचों से वह युद्धभूमि ऐसी सुशोभित हो रही थी, मानो वहाँ जिसकी लपटें शान्त हो गयी है, ऐसी आग जगह जगह पड़ी हो।
चारों ओर तरकस फेंके पड़े थे, धनुष गिरे थे और सोने के पंखवालें बाण बिखरे हुए थे। सब ओर क्षुद्रघण्टिकाओं के जाल से विभूषित टूटे-फूटे रथ पड़े थे। बाणों से मारे गये घोड़े खून से लथपथ हो जीभ निकाले ढेर हो रहे थे।अनुकर्ष, पताका, उपासडंग, ध्वज तथा बड़े-बड़े वीरों के श्वेत महाशडंख बिखरे पड़े थे।जिनकी सूँड़ें कट गयी थी, ऐसे मतवाले हाथी धराशायी हो रहे थे। उन सबके द्वारा वह रणभूमि भाँति-भाँति के अलंकारों से अलंकृत युवती के समान सुशोभित हो रही था।कुछ दन्तार हाथी प्रास धँस जाने के कारण गहरी व्यथा से युक्त सूँड़ों द्वारा बार बार शब्द करते और पानी के उनके कारण वह युद्धस्थल जल के स्त्रोत बहाने वाले पर्वतों से युक्त सा प्रतीत होता था। वहाँ नाना प्रकार के रंग वाले कम्बल, हाथियों के झूल तथा वैदूर्यमणि के दण्डवाले सुन्दर अडंकुश गिरे हुए थे।चारों ओर गजराजों के घंटे पड़े हुए थे। हाथियों की पीठ पर बिछाये जाने वाले फटे हुए विचित्र कम्बल और अडंकुश सब ओर गिरे हुए थे। गले के विचित्र आभूषण और सुनहरे रस्से भी जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े थे।अनके टुकड़ों में कटे हुए यन्त्र, सुवर्णमय तोमर, धूल से कपिल वर्ण के दिखायी देने वाले अश्वों की छाती को ढकने वाले सुनहरे कवच, बाजूबंद सहित घुड़सवारों के हाथों में धारण किये हुए तीखे और चमकीले प्रास तथा चमचमाती हुई ऋष्टियाँ छिन्न-भिन्न होकर यत्र-तत्र पड़ी थी।जहाँ-तहाँ गिरे हुए विचित्र उष्णीष (पगड़ी आदि), पानी की तरह बरसाये गये सुवर्णभूषित नाना प्रकार के बाण, घोड़ों की जीन,झूल और उनकी पीठ पर बिछाने योग्य रंकु नामक मृगों के कोमल चर्ममय आसन, जो पैरों से कुचलकर धूल में सन गये थे तथा नरेशों के मुकुट आबद्ध बहुमूल्य एवं विचित्र मणिरत्न सब ओर बिखरे पड़े थे।
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