महाभारत वन पर्व अध्याय 116 श्लोक 1-13
षोडशाधिकशततम (116) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
पिता की आज्ञा से परशुरामजी का अपनी माता का मस्तक काटना और उन्हीं के वरदान से पुन: जिलाना, परशुरामजी द्वारा कार्तवीर्य अर्जुन का वध और उसके पुत्रों द्वारा जमदग्नि मुनि की हत्या
अकृतव्रण कहते है- राजन ! महातपस्वी जमदग्रि ने वेदाध्ययन में तत्पर होकर आरम्भ की । तदनन्तर शौच संतोषदि नियमों का पालन करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण देवताओ को अपने वश में कर लिया ।[१]
युधिष्ठिर ! फिर राजा प्रसेनजित के पास जाकर जमदग्रि मुनि ने उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की ओर राजा ने मुनि को अपनी कन्या ब्याह दी । भृगुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले जमदग्रि राजकुमारी रेणुका को पत्नी रुप में पाकर आश्रम पर ही रहते हुए उसके साथ तपस्या करने लगे । रेणुका सदा सब प्रकार से पति के अनूकुल चलने वाली स्त्री थी । उसके गर्भ से क्रमश: चार पुत्र हुए, फिर पांचवे पुत्र परशुरामजी का जन्म हुआ । अवस्था की दृष्टि से भाइयों में छोटे होने पर भी वे गुणो में उन सबसें बढ़े चढ़े थे । एक दिन जब सब पुत्र फल लाने के लिये वन में चले गये, तब नियमपूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाली रेणुका स्नान करने के लिए नदी तट पर गयी । राजन ! जब वह स्नान करके लौटने गली, उस समय अकस्मात उसकी दृष्ट मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पडी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था । उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की । उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका में बेहोश सी हो गयी । फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया । परंतु पतिदेव उसकी सब बातें जान गये । उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की । इसी समय जमदग्रि ज्येष्ठ पुत्र रुमण्वान वहां आ गये । फिर क्रमश: सुशेण, वसु, और विश्वावसु भी आ पहूंचे । भगवान जमदग्रि ने बारी बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि तुम अपनी माता का वध कर डालो, परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से कुछ भी बोल न सके- बेहोश से खड़े रहे । तब महर्षि कुपित हो उन से पुत्रों को शाप दे दिया शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना (विचार-शक्ति) खो बैठे और तुरंत मृग एवं पक्षियों के समान जड़ बुद्धि हो गये । तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुरामजी सबसे पीछे आश्रम पर आये । उस समय महातपस्वी महाबाहु तमदग्रि ने उनसे कहा-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहां कुछ प्रतियों में ‘देवान’ की जगह ‘वेदानद्ध पाठ मिलता है । उस दशा में यह अर्थ होगा कि ‘वेदो को वश में कर लिया ।‘ परंतु वेदों को वश में करने की बात सुसंगत जान पडता है, इसलिये इमने ‘देवान’ यही पाठ रखा है । काश्मीर की देवनागरी लिपिबाली इस्तलिखित पुस्तक में यहां तीन श्लोक अधिक मिलते है। उनसे भी ‘देवान’ पाठ का ही समर्थन होता है। वे श्लोक इस प्रकार है – इन श्लोको द्वारा देवताओं के प्रकट होकर वरदान देने का प्रसंग सूचित होता है, अत: …. ततो देपान नियनाद वशमानयत वही पाठ ठीक है ।