महाभारत वन पर्व अध्याय 119 श्लोक 1-13

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एकोनविंशत्‍यधि‍कशततम (119) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: एकोनविंशत्‍यधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

प्रभास तीर्थ में बलराम जी के पाण्‍डवों के प्रति‍ सहानुभूति‍ सूचक दु:ख पूर्ण उद्धार

जनमेजय ने पूछा- तपोधन ! प्रभासतीर्थ में पहूंचकर पाण्‍डवों तथा वृष्‍णि‍वंशि‍यों ने क्‍या कि‍या वहां उनमें कैसी बात चीत हुई वे सब महात्‍मा यादव और पाण्‍डव सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के वि‍द्वान और एक दूसरे का हि‍त चाहने वाले थे, (अत: उनमें क्‍या बात हुई यह मैं जानना चाहता हूं) । वैशम्‍पायनजी कहते है- राजन ! प्रभासक्षेत्र समुद्र तटवर्ती एक पूण्‍यमय तीर्थ है। वहां जाकर वृष्‍णि‍वंशी वीर पाण्‍डवों को चारों से घेरकर बैठ गये । तदनन्‍तर गोदुग्‍ध, कुन्‍दकुसुम, चन्‍द्रमा, मृणाल (कमल नाल) तथा चांदी की सी कान्‍ति‍वाले वनमालावि‍भूषि‍त हलधर बलराम ने कमलनयन श्रीकृष्‍ण से कहा । बलदेव बोले- श्रीकृष्‍ण ! जान पड़ता है, आचरण में लाया हुआ धर्म भी प्राणि‍यों के अभ्‍युदय का कारण नहीं होता और उनका कि‍या हुआ अधर्म भी पराक्रमी प्राप्‍ति‍ कराने वाला नहीं होता; क्‍योंकि‍ महात्‍मा युधि‍ष्‍ठि‍र को (जो सदा धर्म का ही पालन करते है) जटाधारी होकर बल्‍कल वस्‍त्र पहने वन में रहते हुए महान क्‍लेश भोगना पड़ रहा है । उधर, दुर्योधन , (अधर्मपरायण होने पर भी) पृथ्‍वी पर शासन कर रहा है । उसके लि‍ए यह पृथ्‍वी भी नही फटती है । इससे तो मन्‍द बुद्धि‍वाले मनुष्‍य यही समझेंगे की धर्माचरण की अपेक्षा अधर्म का आचरण ही श्रेष्‍ट है । दुर्योधन नि‍रन्‍तर उन्‍नति‍ कर रहा है और युधि‍ष्‍ठि‍र छल से राज्‍य छि‍न जाने के कारण दु:ख उठा रहे है । (युधि‍ष्‍ठि‍र और दुर्योधन के दृष्‍टानत को सामने रखकर) मनुष्‍यों में परस्‍पर महान संदेह खड़ा हो गया है । प्रजा यह सोचने लगी है कि‍ हमें क्‍या करना चाहि‍ये- हमे धर्म का आश्रय लेना चाहि‍ये या अधर्म का । ये राजा युधि‍ष्‍ठि‍र साक्षात धर्म के पुत्र है । धर्म ही इनका आधार है । ये सदा सत्‍य का आश्रय लेते और दान देते रहते हैं । कुन्तीकुमार युधि‍ष्‍ठि‍र राज्‍य और सुख छोड़ सकते है, (परंतु धर्म का त्‍याग नहीं कर सकते) भला, धर्म से दूर होकर कोई कैसे अभ्‍युदय का भागी हो सकता हैं । पि‍तामह भीष्‍म, ब्राह्मण कृपाचार्य, द्रोण तथा कुल के बड़े बूढ़े राजा धृतराष्‍ट्र - ये कुन्‍ती के पुत्रों को राज्‍य से नि‍काल कर कैसे सुख पाते है । भरतकुल के इन प्रधान व्‍यक्‍ति‍यों को धि‍क्‍कार है । क्‍योंकि‍ बुद्धि‍ पाप में लगी हुई है । पापी राजा धृतराष्‍ट्र परलोक में पि‍तरों से मि‍लने पर उनके सामने कैसे यह कह सकेगा कि‍ मैने अपने और भाई पाण्‍डु के पुत्रों के साथ न्‍यायमुक्‍त बर्ताव कि‍या है।‘ तब कि‍ उसने इन नि‍र्दोष पुत्रों को राज्‍य से वंचि‍त कर दि‍या । वह अब भी अपने बुद्धि‍ रूप नेत्रों से यह नहीं देख पाता कि‍ कौन सा पाप करने के कारण मुझे इस प्रकार अन्‍धा होना पड़ा है और आगे कुन्‍ती पुत्र युधि‍ष्‍ठि‍र को राज्‍य से नि‍कालकर जब मैं भूतल के राजाओं से फि‍र से जन्‍म लूंगा, तब मेरी दशा कैसी होगी । वि‍चि‍त्र वीर्य का पुत्र धृतराष्‍ट्र और उसके पुत्र दुर्योधन आदि‍ यह क्रुर कर्म करके (स्‍वप्‍न में) नि‍श्‍चय ही पि‍तृलोक की भूति‍ में सुवर्ण के समान चमकने वाले समृद्धि‍शाली एवं पुष्‍पि‍त वृक्षों को देख रहे है । धृतराष्‍ट्र सुदृढ़ कंधे तथा वि‍शाल एवं लाल नेत्रोंवाले इन भीष्‍म आदि‍ से कोई बात पूछता तो है, परंतु नि‍श्‍चय ही उनकी बात सुनकर मानता नहीं है, तभी तो भाइयों सहि‍त शस्‍त्रधारी युधि‍ष्‍ठि‍र के प्रति‍ भी मन में शंका रखकर इनहे उसने वन में भेज दि‍या है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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