महाभारत वन पर्व अध्याय 118 श्लोक 17-23
अष्टादशाधिकशततम (118) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
धर्मात्माओं मे श्रेष्ठ युधिष्ठिर वहां बारह दिनों तक केवल जल और वायु पीकर रहते हुए दिन में और रात में भी स्नान करते तथा अपने चारों ओर आग जलाकर तपस्या में लगे रहते थे । इसी समय वृष्णिवंश शिरोमणी भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने सुना कि महाराज युधिष्ठिर प्रभास क्षेत्र मे उग्र तपस्या कर रहे है; तब वे अपने सैनिकों सहित अजमीढकुल भूषण युधिष्ठिर से मिलने के लिये गये । वहां जाकर वृष्णिवंशियों ने देखा, पाण्डवलोग पृथ्वी पर सो रहे है, उनके सारे अंग धूल से सने हुए है तथा कष्ट सहन के अयोग्य द्रौपदी भी भारी दुर्दशा भोग रही हैा यह सब देखकर वे बड़े दुखी हुए और आर्त स्वर से रोने लगे । (उस महान संकट में भी) महाराज युधिष्ठिर ने अपना धैर्य नहीं छोड़ा था । उन्होनें बलराम, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि तथा अन्यान्य वृष्णिवंशियों के पास जा जाकर धर्मानुसार उन सब का आदर सत्कार किया । राजन ! पाण्डुपुत्रों द्वारा सत्कृत होकर यादवों ने भी उन सबका यथोचित सत्कार किया और फिर देवता जैसे इन्द्र के चारों ओर बैइ जाते है, उसी प्रकार वे धर्मराज युधिष्ठिर को सब ओर से घेरकर बैठ गये । तत्पश्चात राजा युधिष्ठिर ने अत्यन्त विश्वस्त होकर यादवों से शत्रुओं की सारी करतुते सुनायी और अपने वनवास का भी सब समाचार बताया । साथ ही बड़ी प्रसन्नता के साथ यह सूचित किया कि अर्जुन दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिये इन्द्र लोक मे गये है । युधिष्ठिर का यह वचन सुनकर उन्हें कुद सान्तवना मिली । परंतु पाण्डवों की अत्यन्त दुर्बल देखकर वे परम पूजनीय महानुभव यादव वीर दु:ख और वेदना से पीड़ित हो आंसू बहाने लगे ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में लोमशतीर्थ यात्रा के प्रसंग में प्रभासक्षेत्र के भीतर यादव-पाण्डव समागमविषयक एक सौ अठारवां अध्याय पुरा हुआ ।
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