महाभारत वन पर्व अध्याय 126 श्लोक 1-17
षडविंशत्यधिकशततम (126) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
राजा मान्धाता की उत्पति और संक्षिप्त चरित्र
युधिष्ठिर ने पूछा- ब्राह्मण श्रेष्ट ! युवानाश्व के पुत्र नृपश्रेष्ट मान्धाता तीनों लोकों मे विख्यात थे । उनकी उत्पति किस प्रकार हुई थी । अमित तेजस्वी मान्धाता ने यि सर्वोच्च् स्थिति कैसे प्राप्त कर ली थी सुना है, पमात्मा विष्णु के समान महाराज मान्धाता वे वश में तीनों लोक थे । निष्पाप मह्षें ! मैं आपके मुख से उन सत्य र्कीति एवं बुद्धिमान राजा मान्धाता का वह सब चरित्र सुनना चाहता हूं । इन्द्र के समान तेजस्वी और अनुपम पराक्रमी उन नरेश ‘मान्धाता’ नाम कैसे हुआ । और उनके जन्म का वृत्तान्त क्या हैं बताइये; क्योंकि आप से सब बातें बताने में कुशल है । लोमशजी ने कहा- राजन ! लोक में उन महामना नरेश का ‘मान्धाता’ नाम कैसे प्रचलित हुआ यि बतलाला हूं, ध्यान देकर सुनो । इक्ष्वाकुवंश में युवनाश्व नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं । भूपाल युवनाश्व ने प्रचुर दक्षिणा वाले बहुत से यज्ञों का अनुष्ठान किया । वे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ थे । उन्होंने एक सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ पूर्ण करकें दक्षिणा के साथ दूसरे दूसरे श्रेष्ट यज्ञों द्वारा भगवान की अराधना की । वे महामना राजर्षि महान व्रत का पालन करने वाले थे तो भी उनके कोई संतान नहीं हुई । तब वे मनस्वी नरेश राज्य का भार मन्त्रियों पर रखकार शास्त्रीय विधि के अनुसार अपने आपको परमात्म् चिन्तन में लगाकर सदा वन में ही रहने लगे । एक दिन की बात है, राजा युवनारश्व अपवास के कारण दु:खित हो गये । प्यास से उनका हृदय सूखने लगा । उन्होंने जल पीने की इच्छा से रात के समय महर्षि भृगु के आश्रम में प्रवेश किया । राजेन्द्र उसी रात में महात्मा भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ने सुद्युधुम्न्रकुमार युवनाश्व को पुत्र की पाप्ति कराने के लिये एक इष्टि की थी । उस इष्टि के समय महर्षि मन्त्रपूत जल से एक बहुत बड़े कलश को भरकर रख दिया था । महाराज वह कलश का जल पहलें से ही आश्रम के भीतर इस उद्देश्य से रखा गया था कि उसे पीकर राजा युवनाश्व की रानी इन्द्र के समान शक्तिशाली पुत्र को जन्म दे सकें । उस कलश को वेदी पर रखकर सभी महर्षि सो गये थे । राज में देर तक जागने के कारण वे सब के सब थके हुए थे । युवनाश्व उन्हें लांघकर आगे बढ़ गये । वे प्यास से पीड़ित थे । उनका कण्ठ सूख गया था । पानी पीने की अत्यन्त अभिलाषा से वे उस आश्रम के भीतर गये और शान्तभाव से जल के लिये याचना करने लगे । राजा थककर सूखे कण्ठ से पानी के लिये चिल्ला रहे थे, परंतु उस समय चें चें करने वाले पक्षी की भांति उनकी चीख पुकार कोई भी न सुन सका । तदनन्तर जल से भरे हुए पर्वोक्त कलश पर उनकी दृष्टि पड़ी । देखते ही वे बड़े वेग से उसकी ओर दौड़े और (इच्छानुसार पीकर उन्होंने बचे हुए जल को वहीं गिरा दिया) । राजा युवनाश्व प्यास से बड़ा कष्ट पा रहे थे । वह शीतल जल पीकर उन्हें बड़ी शान्ति मिली । वे बुद्धिमान नरेश उस समय जल पीने से बहुत सुखी हुए । तत्पश्चात तपोधन च्यवन मुनि के सहित सब मुनि जाग उठे। उन सबने उस कलश को जल से शून्य देखा ।
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