महाभारत वन पर्व अध्याय 136 श्लोक 1-16
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षटत्रिंशदधिकशततम (136) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
यवक्रीत का रैभ्युमुनि की पुत्रवधू के साथ व्यभिचार और रैभ्यमुनि के क्रोध से उत्पन्न राक्षस के द्वारा उसकी मृत्यु
लोमशजी कहते है- युधिष्ठिर ! उन दिनो यवक्रीत सर्वथा भयशून्य होकर चारों ओर चक्कर लगाता था। एक दिन वैशाखमास में रैभ्यमुनि के आश्रम में गया । भारत ! वह आश्रम खिले हुए वृक्षों की श्रेणियों से सुशोभित हो अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता था। उस आश्रम में रैभ्य मुनि की पुत्रवधू किन्नरी के समान विचर रही थी। यवक्रीत ने उसे देखा । देखते ही वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी विचार शक्ति खो बेठा और लजाती हुई उस मुनिवधू से निर्लज्ज होकर बोला- ‘सुन्दरी ! तू मेरी सेवा में उपस्थित हो’ । वह यवक्रीत शील स्वभाव को जानकर भी उसके शाप से डरती थी। साथ ही उसे रैभ्य मुनि की तेजस्विताका भी स्मरण था। अत: बहुत अच्छा कहकर उसके पास चली आयी । शत्रुविनाशक भारत ! तब यवक्रीत ने उसे एकान्त में ले जाकर पाप के समुद्र मे डुबो दिया। ( उसके साथ रमण किया ) इतने ही में रैभ्य मुनि अपने आश्रम में आ गये । आकर उन्होंने देखा कि मेरी पुत्रवधू एवं परावसु की पत्नी आर्तभाव से रो रही है। युधिष्ठिर ! देखकर रैभ्य ने मधुर वाणी द्वारा उसे सान्त्वना दी तथा रोने का कारण पूछा। उस शुभलक्षणा बहू ने यवक्रीत की कही हुई सारी बातें श्र्वसुर के सामने कह सुनायीं एवं स्वयं उसने भलीभांति सोच विचारकर यवक्रीत की बातें मानने से जो अस्वीकार कर दिया था, वह सारा वृतान्त भी बता दिया । यवक्रीत की यह कुचेष्टा सुनते ही रैभ्य के हृदय मे क्रोध की प्रचण्ड अग्नि प्रज्वलित हो उठी, जो उनके अन्त:करण को मानो भस्म किये दे रही थी । तपस्वी रैभ्य स्वभाव से ही क्रोधी थे, तिसपर भी उस समय उनके उपर क्रोध का आवेश छा रहा था। अत: उन्होने अपनी एक जटा उखाड़कर संस्कारपूर्वक स्थापित की हुई अग्नि में होम दी । उससे एक नारी के रूप में कृत्या प्रकट हुई, जो रूप में उनकी पुत्रवधू के ही समान थी। तत्पश्चात एक दूसरी जटा उखाड़कर उन्होने पुन: अग्नि में डाल दी । उससे एक राक्षस प्रकट हुआ, जिसकी आंखे बड़ी डरावनी थी। वह देखने में बड़ा भयानक प्रतीत होता था। उस समय उन दोनों ने रैभ्य मुनि से पूछा- ‘हम आपकी किस आज्ञा का पालन करें । तब क्रोध से भरे हुए महर्षि ने कहा- ‘यवक्रीत को मार डालो।‘ उस समय ‘बहुत अच्छा‘ कहकर वे दोनों यवक्रीत के वध की इच्छा से उसका पीछा करने लगे । भारत ! महामना रैभ्य की रची हुई कृत्यारूप सुन्दरी नारी ने पहले यवक्रीत के पास उपस्थित हो उसे मोह में डालकर उसका कमण्डल हर लिया । कमण्डल खो जाने से यवक्रीत का शरीर उच्छिष्ट ( जूठा आ अपवित्र) रहने लगा। उस दशा मे वह राक्षस हाथ में त्रिशुल उठाये यवक्रीत की ओर दौड़ा । राक्षस शुल हाथ मे लिये मुझे मार डालने की इच्छा से मेरी ओर दौड़ा आ रहा है, यह देखकर यवक्रीत सहसा उठे ओर उस मार्ग से भागे, जो एक सरोवर की ओर जाता था । इसके जाते ही सरोवर का पानी सुख गया। सरोवर को जलहीन हुआ देख यवक्रीत फिर तुरंत ही समस्त सरिताओं के पास गया; परंतु इसके जाने पर वे सब भी सुख गयीं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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