महाभारत वन पर्व अध्याय 140 श्लोक 1-17
चत्वारिंशदधिकशततम (140) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
भीमसेन का उत्साह तथा पाण्डवों का कुलिन्दराज सुबाहु के राज्य में होते हुए गन्धमादन और हिमालय पर्वत को प्रस्थान
युधिष्ठिर बोले – भीमसेन ! यहां बहुत से बलवान और विशालकाय राक्षस छिपे रहते हैं; अत: अग्निहोत्र एवं तपस्या के प्रभाव से ही हमलोग यहां से आगे बढ़ सकते है । वृकोदर ! तुम बलका आश्रय लेकर अपनी भूख प्यास मिटा दो। फिर शारीरिक शक्ति और चतुरता का सहारा लो । भैया ! कैलाश पर्वत के विषय में महर्षि ने जो बात कही है, वह तुमने भी सुना ही है; अब स्वयं अपनी बुद्धि से विचार करके देखो, द्रौपदी इस दुर्गम प्रदेश में कैसे चल सकेगी । अथवा विशालनेत्रों वाले भीम ! तुम सहदेव, धैम्य, सारथी, रसोइये, समस्त सेवकगण, रथ, घोड़े तथा मार्ग के कष्ट को सहन न कर सकने वाले जो अन्य ब्राह्मण हैं, उन सब के साथ यहीं से लौट जाओं । केवल मैं, नकुल तथा महातपस्वी लोमशजी- ये तीन व्यक्ति ही संयम व्रत का पालन करते हुए यहां से आगे की यात्रा करेंगे। हम तीनो ही स्वल्पाहा से जीवन-निर्वाह करेंगे। तुम गंगाद्वार ( हरिद्वार ) मैं एकाग्रचित हो मेरे आगमन की प्रतीक्षा करो और तब तक मैं लौटकर न आउं, तब तक द्रौपदी की रक्षा करते हुए वहीं निवास करो । भीमसेन ने कहा- भारत ! राजकुमारी द्रौपदी यद्यपि रास्ते की थकावट से और मानसिक दु:ख से भी पीड़ित है तो भी यह कल्याणमयी देवी अर्जुन को देखने की इच्छा से उत्साहपूर्वक हमारे साथ चल ही रही है । संग्राम में कभी पीठ न दिखाने वाले निद्राविजयी महात्मा अर्जुन को न देखने के कारण आपके मन में भी अत्यनत खिन्नता हो रही है । फिर सहदेव के, मेरे तथा द्रौपदी के लिये तो कहना ही क्या है। भारत ! ये ब्राह्मण लोग चाहें तो यहां से लौट सकते है। समस्त सेवक, सारथी, रसोइये तथा हममें से और जिस जिसको आप लौटाना उचित समझे- वे सभी जा सकते है। राक्षसों से भरे हुए इस पर्वत पर तथा उंचे उंचे दुर्गम प्रदेशों में मैं आपको कदापि अकेला छोड़ना नहीं चाहता। नरश्रेष्ट ! यह परम सौभाग्यशाली पतिव्रता राजकुमारी कृष्णा भी आपको छोड़कर लौटने को कभी तैयार न होगी। इसी प्रकार यह सहदेव भी आप मं सदा अनुराग रखनेवाला है,आपको छोड़कर कभी नहीं लौटेगा। मैं इसके मन की बात जानता हूं। महाराज ! सव्यसाची अर्जुन को देखने की इच्छा से हम सभी लालायित हो रहे है; अत: सब साथ ही चलेगे। राजन ! अनेक कन्दराओं से युक्त इस पर्वत पर यदि रथों के द्वारा यात्रा सम्भव न हो तो हम पैदल ही चलेंगे। आप इसके लिये उदास न हो। जहां जहां द्रौपदी नहीं चल सकेगी, वहां वहां स्वयं इसे कंधे पर चढ़ाकर ले जाउंगा । राजन ! मेरा ऐसा ही विचार है, आप उदास न हो। वीर माद्रीकुमार नकुल और सहदेव दोनों सुकुमार हैं। जहां कही दुर्गम स्थान मे ये असमर्थ हो जायंगे, वहां मैं इन्हे पार लगाउंगा ।
« पीछे | आगे » |