महाभारत वन पर्व अध्याय 142 श्लोक 21-39
द्विचत्वारिंशदधिकशततम (142) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )
तब उन्होने मन ही मन अविनाशी भगवान विष्णु का चिन्तन किया, उनके स्मरण करते ही सर्वव्यापी भगवान श्रीपति वहां उपस्थित हो प्रकाशित हुए । ‘उस समय सभी देवताओं तथा ऋषियों ने उनकी स्तुति की । उन्हे देखते ही प्रज्वलित कान्ति से सुशोभित भगवान अग्निदेव का तेज नष्ट सा हो गया। वे श्रीहरी के तेज से तिरस्कृत हो गये। समस्त देवसमुदाय के स्वामी एवं वरदायक भगवान विष्णु का दर्शन करके वज्रधारी इन्द्र ने उन्हे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और बार बार मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सारी बातें भगवान से कह सुनायी, जिनके कारण उन्हें उस दैत्य से भय हो रहा था’ । तब भगवान विष्णु ने कहा- इन्द्र ! मैं जानता हूं, तुम्हें दैत्यराज नरकासुर से भय प्राप्त हुआ है। वह अपने तप: सिद्ध कर्मों द्वारा इन्द्र पद को लेना चाहता है । देवेन्द्र ! यद्यपि तपस्या द्वारा उसे सिद्धि प्राप्त हो चुकी है तो मैं तुम्हारे प्रेमवश निश्चय ही उस दैत्य को मार डालूंगा, तुम थोड़ी देर और प्रतिक्षा करो । ऐसा कहकर महातेजस्वी भगवान विष्णु ने हाथ से मार कर उस दैत्य के प्राण हर लिये और वह वज्र के मारे हुए गिरीराज की भांति पृथ्वी पर गिर पड़ा । इस प्रकार माया द्वारा मारे गये उस दैत्य की हड्डीयों का यह समूह दिखायी देता है । अब मैं भगवान विष्णु का यह दूसरा परराक्रम बता रहा हूं, जो सर्वत्र प्रकाशमान है । एक समय सारी पृथ्वी एकार्णव के जल मे डूबकर अद्दश्य हो गयी, पाताल में डूब गयी। उस समय भगवान विष्णु ने पर्वतशिखर के सद्दश एक दांत वाले वाराह का रूप धारण करके पुन: इसका उद्धार किया था । युधिष्ठिर ने पूछा- भगवान ! देवेश्वर भगवान विष्णु पे पाताल में सैकड़ो योजन नीचे डूबी हुई इस पृथ्वी का पनुरूद्धार किस प्रकार किया। आप इस कथा को यथार्थरूप से और विस्तारपूर्वक कहिये। जगत का भार धारण करने वाली इस उचला पृथ्वी का उद्धार करने के लिए उन्होंने किस उपाय का अवलम्बन किया । परमात्मा के उस अद्भुद पराक्रम का दर्शन ( ज्ञान ) किसने कराया। द्विजश्रेष्ट ! यह सब मैं यथार्थरूप में विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूं । आप इस वृत्तान्त के आश्रय ( ज्ञाता ) है । लोमशजी कहते है- युधिष्ठिर ! तुमने जिसके विषय में मुझ से प्रश्न किया है, वह कथा- सारा वृत्तान्त मैं बता रहा हूं, सुनो । तात ! इस कल्प के पथम सत्ययुग की बात है, एक समय बड़ी भंयकर परिस्थित उत्पन्न हो गयी थी। उस समय आदिदेव पुरातन पुरूष भगवान श्रीहरी ही यमराज का भी कार्य सम्पन्न करते थे । युधिष्ठिर ! परम बुद्धिमान देवदेव भगवान श्रीहरी मयराज कार्य संभालते समय किसी भी प्राणी की मृत्यु नहीं होंती थी; परंतु उत्पत्तिका कार्य पूर्ववत चलता रहा । फिर तो पक्षियों समूह बढ़ने लगे। गाय, बैल, भेड़ बकरे आदि पशु, घोड़े, मृग तथा मांसाहारी जीव सभी बढ़ने लगे । शत्रुओं को संताप देने वाले नरश्रेष्ट ! जैसे बरसात में पानी बढ़ता है, उसी प्रकार मनुष्य भी हजार एवं दस हजार गुनी संख्या में बढ़ने लगे । तात ! इस प्रकार सब प्राणियों की वृद्धि होने से जब बड़ी भयंकर अवस्था आ गयी, तब अत्यनत भार से दबकर यह पृथ्वी सैकड़ो योजन नीचे चली गयी ।
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