महाभारत वन पर्व अध्याय 146 श्लोक 86-96
षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
तब महान् धैर्यशाली हनुमान् जीने आंखें कुछ खोलकर अपने मधुपिंगल नेत्रोद्वारा अवहेलनापूर्वक उनकी ओर देखा और उन्हें निकट पाकर उनसे मुसकारते हुए इस प्रकार कहा-हनुमानजी बोले- भाई! मैं तो रोगी हूं और यहां सुखसे सो रहा था। तुमने क्यों मुझे जगा दिया ? तुम समझदार हो। तुम्हें सब प्राणियोंपर दया करनी चाहिये। हमलोग तो पशु-योनिके प्राणी हैं, अतः धर्मकी बात नहीं जानते; परंतु मनुष्य बुद्धिमान् होते है; अतः वे सब जीवोंपर दया करते हैं। किंतु पता नहीं, तुम्हारे-जैसे बुद्धिमान् लोग धर्मका नाश करनेवाले तथा मन, वाणी और शरीरको भी दूषित कर देनेवाले क्रूर कर्मोंमें कैसे प्रवृत होते हैं ? तुम्हें धर्मका बिल्कुल ज्ञान नहीं है। मालूम होता है, तुमने विद्वानोंकी सेवा नहीं की है। मन्दबुद्धि होनके कारण अज्ञानवश तुम यहांके मृगोंको कष्ट पहुंचाते हो। बोलो तो, तुम कौन हो ? इस वनमें तुम क्यों और किस लिये आये हो ? यहां तो न कोई मानवीय भाव हैं और न मनुष्यों का ही प्रवेश है। पुरूषश्रेष्ठ! ठीक-ठीक बतलाओ, तुम्हें आज इधर कहांतक जाना हैं ? यहांसे आगे तो यह पर्वत अगम्य है। इसपर चढ़ना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है। वीर! सिद्ध पुरूषोंके सिवा और किसीकी यहां गति नहीं है। यह देवलोकका मार्ग हैं, जो मनुष्योंके लिये सदा अगम्य है। वीरवर! मैं दयावश ही तुम्हें आगे जानेसे रोकता हूं। मेरी बात सुनो। प्रभो! यहांसे आगे तुम किसी प्रकार जा नहीं सकते। इसपर विश्वास करो।।94।। मानवशिरोमणे! आज यहां सब प्रकारसे तुम्हारा स्वागत है। ये अमृतके समान मीठे फल-मूल खाकर यहींसे लौट जाओं, अन्यथा व्यर्थ ही तुम्हारे प्राण संकटमें पड़ जायेंगे। नरपुंगव! यदि मेरा कथन हितकर जान पड़े, तो इसे अवश्य मानो।
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