महाभारत वन पर्व अध्याय 147 श्लोक 1-20
सप्तचत्वारिंशदधिकशततम (147) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
श्री हनुमान् और भीमसेन का संवाद
वैशम्पायनही कहते हैं-जनमेजय! उस समय परम बुद्धिमान् वानरराज हनुमान् जीका यह वचन सुनकर शत्रुसूदन वीरवर भीमसेनने इस प्रकार कहा। भीमसेनने पूछा-आप कौन है? और किसलिये वानरका रूप धारण कर रखा है। मैं ब्राहमणके बादका वर्ण-क्षत्रिय हूं और में आपसे आपका परिचय पूछता हूं। मेरा परिचय इस प्रकार है- मैं चन्द्रवंशी क्षत्रिय हूं। मेरा जन्म कुरूकुलमें हुआ है। माता कुन्तीने मुझे गर्भमें धारण किया था। मैं वायुपुत्र पाण्डव हूं। मेरा नाम भीमसेन है।
कुरूवीर भीमसेनको वह वचन मन्द मुसकानके साथ सुनकर वायुपुत्र हनुमान् जी वायुके ही पुत्र भीमसेनसे इस प्रकार कहा। हनुमान् जी बोले-भैया! मैं वानर हूं। तुम्हें तुम्हारी इच्छाके अनुसार मार्ग नहीं दूंगा। अच्छा तो यह होगा कि तुम यहींसे लौट जाओ, नही तो तुम्हारें प्राण संकटमें पड़ जायेंगे।। भीमसेनने कहा-वानर! मेरे प्राण संकटमें पड़े या और कोई दुष्परिणाम भोगना पड़े; इसके विषयमें तुमसे कुछ नहीं पूछता हूं। उठो और मुझे आगे जानेके लिये रास्ता दो। ऐसा होनेपर तुमको मेरे हाथोंसे किसी प्रकारका कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा। हनुमान् जी बोले- भाई! मैं रोगसे कष्ट पा रहा हूं। मुझमें उठनेकी शक्ति नहीं है। यदि तुम्हें जाना अवश्य है, तो मुझे लांघकर चले जाओ। भीमसेनने कहा-निर्गुण परमात्मा समस्त प्राणियोंके शरीरमें व्याप्त होकर स्थितहैं। वे ज्ञानसे ही जानने आते हैं। मै उनका अपमान या उल्लंघन नहीं करूंगा। यदि शास्त्रोंके द्वारा मुझे उन भूतभावन भगवान् के स्वरूपका ज्ञान न होता; तो मैं तुम्हींको क्या इस पर्वतको भी उसी प्रकार लांघ करता, जैसे हनुमान् जी समुद्रको लांघ गये थे। हनुमान् जी बोले-नरश्रेष्ठ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूं, वह हनुमान् कौन था ? जो समुद्रको लांघ गया था। उसके विषयमें यदि तुम कुछ कह सको तो कहो। भीमसेनने कहा-वानरप्रवर श्रीहनुमान् जी मेरे बड़े भाई हैं। वे अपने सद्गुणों के कारण सबके लिये प्रशंसनीय हैं। वे बुद्धि, बल, धैर्य एवं उत्साहसे युक्त हैं। रामायणमें उनकी बड़ी ख्याति है। वे वानरश्रेष्ठ हनुमान् श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीकी खोज करनेके लिये सौ योजन विस्तृत समुद्रको एक ही छलांगमें लांघ गये थे। वे महापराक्रमी वानवीर मेरे भाई लगते हैं। मैं भी उन्हींके समान तेजस्वी, बलवान् और पराक्रमी हूं तथा युद्धमें तुम्हें परास्त कर सकता हूं। उठो और मुझे रास्ता दो तथा आज मेरा पराक्रम अपनी आंखों देख लो। यदि मेरी आज्ञा नहीं मानोगे, तो तुम्हें यमलोक भेज दूंगा। वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! भीमसेनको बलके अभिमानसे उन्मत तथा अपनी भुजाओंके पराक्रमको घमंड़ में भरा हुआ जान हनुमान् जीको मन-ही-मन उनका उपहास करते हुए उनसे इस प्रकार कहा-हनुमान् जी बोले-अनघ! मुझपर कृपा करो। बुढ़ापेके कारण मुझमें उठनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। इसलिये मेरे उपर दया करके इस पूंछको हटा दो और निकल जाओ। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! हनुमानजी के ऐसा कहने पर अपने बाहुबल का घमंड़ रखने वाले भीम ने मन-ही-मन उन्हें बल और पराक्रम से हीन समझा। और भीतर-ही-भीतर यह संकल्प किया कि 'आज मैं इस बल और पराक्रम से शून्य वानर को वेगपूर्वक इसकी पूंछ पकड़कर यमराजके लोकमें भेज देता हूं'। ऐसा सोचकर उन्होंने बड़ी लापरवाही दिखाते और मुसकराते हुए अपने बायें हाथसे उस महाकविकी पूंछ पकड़ी, किंतु वे उसे हिला-डुला भी न सके। तब महाबली भीमसेनने उनकी इन्द्र-धनुषके समान उची पूंछको दोनों हाथोंसे उठानेका पुनः प्रयत्न किया, परंतु दोनों हाथ लगा देनेपर भी वे उसे उठा न सके।
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