महाभारत वन पर्व अध्याय 150 श्लोक 23-43
पञ्चाशदधिकशततम (150) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
वहां जाकर तुम जल्दीसे स्वयं ही उसके फूलन तोड़ने लगना। मनुष्योंको तो विशेषरूपसे देवताओंका सम्मान ही करना चाहिये। भरतश्रेष्ठ! पूजा, होम, नमस्कार, मंत्रजप तथा भक्तिभावसे देवता प्रसन्न होकर कृपा करते हैं। तात! तुम दुःसाहस न कर बैठना, अपने धर्मका पालन करना, स्वधर्ममें स्थित रहकर तुम श्रेष्ठ धर्मको समझो और उसका पालन करो। क्योंकि धर्मको जाने बिना और वृद्ध पुरूषोंकी सेवा किये बिना बृहस्पति-जैसे विद्वानोंके लिये भी धर्म और अर्थके तत्वको समझना सम्भव नहीं है। कहीं अधर्म ही धर्म कहलाता है और कहीं धर्म ही अधर्म कहा जाता है। अतः धर्म और अधर्मके स्वरूपका पृथक्-पृथक् ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। बुद्धिहीलोग इसमें मोहित हो जाते हैं। आचारसे धर्मकी उत्पति होती है। धर्मंमें वेदोंकी प्रतिष्ठा है। वेदोंसे यज्ञ प्रकट हुए हैं और यज्ञोंसे देवताओं की स्थिति है। वेदोक्त आचारके विधानसे बतलाये हुए यज्ञोंद्वारा देवताओंकी आजीविका चलती है और बृहस्पति तथा शुक्राचार्यकी कही हुई नीतियां मनुष्योंके जीवन-निर्वाहकी आधारभूमि हैं। हाट-बाजार करना, कर लगाना या टैक्स लेना, व्यापार, खेती, गोपालन, भेड़ और बकरोंका पोशण तथा विद्या पढ़ना-पढ़ाना इन धर्मानुकूल वृतियोंद्वारा द्विजगण सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करते हैं। वेदत्रयी, वार्ता कृषि-वाणिज्य आदि और दण्डनीति-ये तीन विद्याएं हैं इनमें वेदाध्ययन ब्राह्मणकी, वार्ता वैश्यकी और दण्डनीति क्षत्रियकी जीविकावृति है । विज्ञ पुरूषोंद्वारा इन वृतियोंका ठीक-ठीक प्रयोग होनेसे लोकयात्राका निर्वाह होता है। यदि लोकयात्रा धर्मपूर्वक न चलायी जाय, इस पृथ्वीपर वेदोक्त धर्मका पालन न हो और दण्डनीति भी उठादी जाय तो यह सारा जगत् मर्यादाहीन हो जाय। यदि यह प्रजा वार्ता-धर्म कृशि, गोरक्षा ओर वाणिज्य में प्रवृत न हो तो नष्ट हो जायगी। इन तीनोंकी सम्यक् प्रवृति होनेसे प्रजा धर्मका सम्पादन करती है। द्विजातियोंका मुख्य धर्म है सत्य सत्य-भाशण, सत्यव्यवहार, सद्भाव। यह धर्मका एक प्रधान लक्षण है। यज्ञ, स्वाध्याय और दान-ये तीन धर्म द्विजमात्रके सामान्य धर्म माने गये है। यज्ञ कराना, वेद और शास्त्रोंको पढ़ाना तथा दान ग्रहण करना-यह ब्राह्मणका ही आजीविकाप्रधान धर्म है। प्रजा-पालन क्षत्रियोंका और पशु-पालन वैष्योंका धर्म हैं। ब्राह्मण आदि तीनों वर्णोंकी सेवा करना शूद्रोंका धर्म बताया गया है। तीनों वर्णोंकी सेवामें रहनेवाले शूद्रोंके लिये भिक्षा, होम और व्रत मना है। कुन्तीनन्दन! सबकी रक्षा करना क्षत्रियका धर्म हैं, अतः तुम्हारा धर्म भी यही है। अपने धर्मका पालन करो। विनयशील बने रहो और इन्द्रियोंको वशमें रखो। वेद-शास्त्रोंके विद्वान्, बुद्धिमान् तथा बड़े-बूढ़े श्रेष्ठ पुरूषोंसे सलाह करके उनका कृपापात्र बना हुआ राजा ही दण्डनीतिके द्वारा शासन कर सकता है। जो राजा दुर्व्यसनोंमे आसक्त होता है; उसका पराभव हो जात है। जब राजा निग्रह और अनुग्रह के द्वारा प्रजावर्गके साथ यथोचित बर्ताव करता है, तभी श्लोकोंकी सम्पूर्ण मर्यादाएं सुरक्षित होती हैं। इसलिये राजाको उचित है कि वह देश और दुर्गमें अपने शत्रु और मित्रोंके सैनिकोंकी स्थिति, वृद्धि और क्षयका गुप्तचरोंद्वारा सदा पता लगाता रहे। साम, दान, दण्ड, भेद-ये चार उपाय, गुप्तचर,उत्तम बुद्धि, सुरक्षित मंत्रणा, पराक्रम, निग्रह, अनुग्रह और चतुरता-ये राजाओंके लिये कार्य-सिद्धिके साधन हैं। साम, दान, भेद, दण्ड और अपेक्षा- इन नीतियोंमें से एक-दो के द्वारा या सबके एक साथ प्रयोगद्वारा राजाओंको अपने कार्य सिद्ध करने चाहिये। भरतश्रेष्ठ! सारी नारियों और गुप्तचरोंका मूल आधार है मंत्रणाको गुप्त रखना। उत्तम मंत्रणा या विचारसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, उसके लिये द्विजोंके साथ गुप्त परामर्श करना चाहिये।
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