महाभारत वन पर्व अध्याय 150 श्लोक 44-52
पञ्चाशदधिकशततम (150) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
स्त्री, मूर्ख, बालक, लोभी और नीच पुरूषोंके तथा जिसमें उन्मादका लक्षण दिखायी दे, उसके भी गुप्त परामर्श न करे। विद्वानोंके साथ ही गुप्त मंत्रणा करनी चाहिये। जो शक्तिशाली हों, उन्हींसे कार्य कराने चाहिये। जो स्नेही सुहद हो उन्हींके द्वारा नीतिके प्रयोगाक काम कराना चाहिये। मूर्खोंको तो सभी कार्योंसे अलग रखना चाहिये। राजाको चाहिये कि वह धर्मके कार्योंमें धार्मिक पुरूषोंको, अर्थसम्बन्धी कार्योंमें अर्थ-शास्त्रों के पण्डितोंको, स्त्रियोंकी देख-भालके लिये नपुंसकोंको और कठोर कार्योंमें कू्रर स्वभावके मनुष्योंको लगावे। बहुत-से कार्योंको आरम्भ करते समय अपने तथा शत्रुपक्षके लोगोंसे भी यह सलाह लेनी चाहिये कि अमुक काम करने योग्य है या नहीं। साथ हीं, शत्रुकी प्रबलता और दुर्बलताको भी जाननेका प्रयत्न करना चाहिये। बुद्धि से सोच-विचारकर अपनी शरण में आये हुए श्रेष्ठ कर्म करने वाले पुरूषों पर अनुग्रह करना चाहिये और मर्यादा भंग करने वाले दुष्ट पुरूषों को दण्ड देना चाहिये। जब राजा निग्रह और अनुग्रह में ठीक तौरसे प्रवृत होता है, तभी लोक की मर्यादा सुरक्षित रहती है । कुन्तीनन्दन! यह मैंने तुम्हें कठोर राज्य-धर्म को उपदेश दिया है। इसके मर्म को समझना अत्यन्त कठिन है। तुम अपने धर्म के विभागानुसार विनीत भाव से इसका पालन करो। जैसे तपस्या, धर्म, इन्द्रिय-संयम और यज्ञानुष्ठान के द्वारा ब्राह्मण उत्तम लोकमें जाते हैं तथा जिस प्रकार वैश्य दान और आतिथ्यरूप धर्मोंसे उत्तम गति प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार इस लोकमें निग्रह और अनुग्रहके यथोचित प्रयोगसे क्षत्रिय स्वर्गलोकमें जाता है। जिनके द्वारा दण्डनीतिका उचित रीतिसे प्रयोग किया गया है, जो राग-द्वेशसे रहित, लोभशून्य तथा क्रोधहीन है; वे क्षत्रिय सत्पुरूषोंको प्राप्त होनेवाले लोकोंमें जाते हैं।
« पीछे | आगे » |