महाभारत वन पर्व अध्याय 177 श्लोक 17-24
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सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्याय: वन पर्व (अजगर पर्व)
वह विशाल वन चैत्ररथ वनके सामन शोभायमान था। वहां सूअर, नाना प्रकारके मृग तथा पक्षी निवास करते थे। उन दिनों पाण्डवोंका वहां हिंस्क जीवोंको मानना ही प्रधान काम था। वहां वे एक वर्षतक बड़े सुखसे विचरते रहे। उसी यात्रामें भीमसेन एक दिन पर्वतकी कन्दरामें भूखसे पीडि़त एक अजगरके पास जा पहुंचे, जो अत्यन्त बलवान् होनेके साथ ही मृत्युके समान भयानक था। उस समय उनकी अन्तरात्मा विषाद एवं मोहसे हो उठी।। अब इन पाण्डवोंके वनवासका बारहवां वर्ष आ पहुंचा था। उसे भी वनमें सानन्द व्यतीत करनेके लिये उनके मनमें बड़ा उत्साह था। अपनी अदभूत कान्तिसे प्रकाशित होते हुए तपस्वी पाण्डव चैत्ररथ वनके समान शोभा पानेवाले उस वनसे निकलकर मरूभूमिसे पास सरस्वतीके तटपर गये और वहीं निवास करनेकी इच्छासे द्वैतवनके द्वैत सरोवरके समीप गये। उस समय पाण्डवोंका विशेष प्रेम सदा धनुर्वेदमें ही लक्षित होता था। उन्हें द्वैववनमें आया देख वहांके निवासी उनके दर्शनके लिये निकट आये। वे सब के सब तपस्या, इन्द्रिय-संयम, सदाचार और समाधिमे तत्पर रहनेवाले थे। तिनकेकी चटाई, जलपात्र, ओढ़नेका कपड़ा और सिल-लोढ़े-यही उनके पास सामग्री थी। सरस्वतीके तटपर पाकड़, बहेड़ा, रोहितक, बेंत, बेर, खैर, सिरस, इगंदी, पीलु, शमी और करीर आदिके वृक्ष खड़े थे। वह नदी यक्ष, गन्धर्व और महर्षियोंको प्रिय थी। देवताओं तो वह वह मानो बस्ती ही थी। राजपुत्र पाण्डव बड़ी प्रसन्नता और सुखसे वहां विचरने और निवास करने लगे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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