महाभारत वन पर्व अध्याय 178 श्लोक 1-24
अष्टसप्तत्यधिकशततम (178) अध्याय: वन पर्व (अजगर पर्व)
महाबली भीमसेनका हिंसक पशुओंको मारना और अजगर द्वारा पकड़ा जाना
जनमेजयने पूछा-मुने ! भयानक पराक्रमी भीमसेनमें तो दस हजार हाथियोंका बल था। फिर उन्हें उस अजगरसे इतना तीव्र भय कैसे प्राप्त हुआ ? जो बलके घमंडमें आकर पुलस्त्यनन्दन कुबेरको भी युद्धके लिये ललकारते थे, जिन्होने कुबेरकी पुष्करिणीके तटपर कितने ही यक्षों तथा राक्षसोंका संहार कर डाला था, उन्हीं शत्रुसूदन भीमसेनको आप भयभीत ( और विपतिग्रस्त ) बताते है। अतः मैं इस प्रसंगको विस्तारसे सुनना चाहता हूं। इसके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है। वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! राजर्षि वृषपर्वाके आश्रमसे आकर उग्र धनुर्धर पाण्डव अनेक आश्चर्योंसे भरे हुए उस द्वैतवनमें निवास करते थे। भीमसेन तलवार बांधकर हाथमें धनुष लिये अकस्मात् घूमने निकल जाते और देवताओं तथा गन्धर्वोंसे सेवित उस रमणीय वनकी शोभा निहारते थे। उन्होंने हिमालय पर्वतके उन शुभ प्रदेशोंका अवलोकन किया, जहां देवर्षि और सिद्ध पुरूष विचरण करते थे तथा अप्सराएं जिनका सदा सेवन करती थीं। वहां भिन्न-भिन्न स्थानोंमें चकोर, उपचक्र, जीवजीवक, कोकिल ओर भृगराज आदि पक्षी कलरव करते थे। वहांके वृक्ष सदा फूल और फल देते थे। हिमके स्पर्शसे उनमें कोमलता आ गयी थी। उनकी छाया बहुत घनी थी और वे दर्शनमात्रसे मन एवं नेत्रोंको आनन्द प्रदान करते थे। उन वृक्षोंसे सुशोभित प्रदेशों तथा वैदूर्यमणिके समान रंगवाले, हिमसदृश, स्वच्छ शीतल सलिलसमूहसे संयुक्त पर्वतीय नदियोंकी शोभा निहारते हुए वे सब ओर घूमते थे। नदियोंकी उस जलराशिमें हंस और कारण्डव आदि सहस्त्रों पक्षी किलोलें करते थे। हरिचन्दन, तुंग और कालयक आदि वृक्षोंसेयुक्त ऊंचे- ऊंचे देवदारूके वनऐसे जान पड़ते थे, मानो बादलोंको फंसाने के लिये फंदे हों। महाबली भीम सारे मरूप्रदेशमें शिकारके लिये दौड़ते और केवल बाणोंद्वारा हिंसक पशुओंको घायल करते हुए विचरा करते थे।भीमसेन अपने महान् बलके लिये विख्यात थे। उनमें सैकड़ो हाथियोंकी शक्ति थी। वे उसवनमें विकराल दाढ़ोंवाले बड़ेसे बड़े सिंहको भी पछाड़ देते थे। भीमसेनका पराक्रम भी उनके नामके अनुसार ही भयानक था। उनकी भुजाएं विशाल थी। वे मृगयामें प्रवृत होकर जहां-तहां हिंसक पशुओं, वराहों और भैसोंको भी मारा करते थे। उनमे सैकड़ो मतवाले गजराजोंके समान बल था। वे एक साथ सौ-सौ मनुष्योंका वेग रोक सकते थे। उनका पराक्रम सिंह और शार्दुलके समान था। महाबली भीम उस वनमें वृक्षोंको उखाड़ते और उन्हें वेगपूर्वक पुनः तोड़ डालते थे। वे अपनी गर्जनसे उस वन्य भूमिके प्रदेशों तथा समूचे वनको गुंजाते रहते थे। वे पर्वतशिखरोंको रौंदते, वृक्षोंको तोड़कर इधर-उधर बिखेरते और निश्चित होकर अपने सिंहनाद से भूमण्डलको प्रतिध्वनि किया करते थे। वे निर्भय होकर बार-बार वेगपूर्वक कूदते -फांदेत, ताल ठोंकते, सिंहनाद करते और तालियां बजाते थे। वनमें घूमते हुए भीमसेनका बलभिमान दीर्घाकालसे बहुत बढ़ा हुआ था। उस समय उनकी सिहंगर्जनासे महान् बलशाली गजराज और मृगराज भी भयसे अपना स्थान छोड़कर भाग गये। वे कहीं दौंड़ते, कहीं खड़े होते और कहीं बैठते हुए शिकार पानेकी अभिलाषा से उस महाभयंकर वनमें निर्भय विचरते रहते थे। वे नरश्रेष्ठ महाबली भीम उस वनमें वनचर भीलोंकी भांति पैदल ही चलते थे, उनका साहस और पराक्रम महान् था। वे गहन वनमें प्रवेश करके समस्त प्राणियोंको डराते हुए अद्भूत गर्जना करते थे। तदनन्तर एक दिनकी बात हैं, भीमसेनके सिंहनादसे भयभीत हो गुफाओंमें रहनेवाले सारे सर्प बड़े वेगसे भागने लगे और भीमसेन धीरे-धीरे उन्हींका पीछा करने लगे। श्रेष्ठ देवताओंके समान कान्तिमान् महाबली भीमसेनने आगे जाकर एक विशालकाय अजगर देखा, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वह अपने शरीरसे एक ( विशाल ) कन्दरा को घेरकर पर्वतके एक दुर्गम स्थानमें रहता था।
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