महाभारत वन पर्व अध्याय 183 श्लोक 21-37
त्रयशीत्यधिकशततम (183) अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व)
'धर्मराज! अब शीघ्र ही आपके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे और आप राजसिंहासनपर आरूढ़ होकर न्यायपूर्वक प्रजाका पालन करेंगे, इसमें तनिक भीसंशय नहीं हैं। यदि आपकी वनवासविषयक प्रतिज्ञा पूरी हो जाय, तो हमस ब लोग आपके विरोधी कौरवोंको दण्ड देनेके लिये उद्यत हैं'। तदनन्तर युदकुलसिंह भगवान् श्रीकृष्णने धौम्य, युधिष्ठिर, भीमसेन, नकुल, सहदेव और द्रौपदीकी ओर देखते हुए कहा-'सौभाग्यकी बात हैं, कि आपलोगों द्वारा की हुई मंगलकामनासे किरीटधारी अर्जुन अस्त्रविद्याके पारंगत विद्वान् होकर सानन्द लौट आये हैं'। इसके बाद दशार्हकुलके स्वामी श्रीकृष्ण, जो अपने सुहदोंसे घिरे हुए थे, यज्ञसेनकुमारी द्रौपदीसे बोले-'कृष्णे! अर्जुनसे मिलकर तेरी सारी कामना सफल हो गयी, यह बड़े आनन्दकी बात हैं। तेरे पुत्र बड़े सुशील हैं। धनुर्वेदमें उनका विशेष अनुराग हैं। वे अपने सुहदोंसहित सत्पुरूषोंद्वारा आचरित सदाचार और धर्मका पालन करते हैं। 'कृष्णे! तुम्हारे पिता और भाइयोंने राज्य तथा राजकीय उपकरणों-यानवाहन आदिकी सुविधा दिखाकर अनेक बार आमंत्रित किया, तो भी तुम्हारे बच्चे अपने नाना यज्ञसेन और मामा धृष्टद्युर्म आदिके घरोंमें रहना पसंद नही करते हैं-वहां उनका मन नहीं लगता हैं। कृष्णे! उनका धनुर्वेदमें विशेष प्रेम हैं। वे आनर्त देशमें ही कुशलपूर्वक जाकर वृष्णिपुरी द्वारिकामें रहते हैं। वहां रहकर उन्हें देवताओंके लोकमें भी जानेकी इच्छा नहीं होती। 'उन बालकोंको तुम सदाचारकी जैसी शिक्षा दे सकती हो, आर्या कुन्ती भी उन्हें जैसा सदाचार सिखा सकती हैं, वैसी शिक्षा देने की योग्यता सुभर्दामें भी हैं। वह बड़ी सावधानीके साथ वैसी ही शिक्षा देकर उन सब बालकोंको सदाचारमें प्रतिष्ठित करती हैं। 'कृष्णे! रूक्मिणीनन्दन प्रद्यम्न जिस प्रकार अनिद्ध, अभिमन्य, सुनीथ और भानुको धनुर्वेदकी शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार वे तुम्हारे पुत्रोंके भी शिक्षक और संरक्षक हैं। 'शिक्षा देनेमें निपुण और आलस्यरहित कुमार अभिमन्यु तुम्हारे शूर-वीर पुत्रोंकी गदा और ढाल-तलवारके दांव-पेंच सिखाते हैं। अन्याय अस्त्रोंकी भी शिक्षा देते हैं। साथ ही रथ चलाने और घोड़े हांकनेकी कला भी सिखाते हैं। वे सदा उनकी शिक्षा-दीक्षामें संलग्न रहते हैं। 'अस्त्र-शस्त्रोंके प्रयोगकी उत्तम शिक्षा दे उनके लिये उन्होंने विधिपूर्वक नाना प्रकारके शस्त्र भी दे रखे हैं। तुम्हारे पुत्रों और अभिमन्यु के पराक्रम देखकर रूक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न बहुत संतुष्ट रहते हैं। 'याज्ञसेनी! तुम्हारे पुत्र जब नगरकी शोभा देखनेके लिये घूमने निकलते हैं। उस समय उनमेंसे प्रत्येकके लिये रथ, घोड़े, हाथी और पालकी आदि सवारियां पीछे-पीछे जाती हैं। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा-'राजन्! दशार्ह, कुकूर और अंधकवंशके योद्धा जहां आप चाहें, वहीं आपकी आज्ञाका पालनकरते हुए खड़े रह सकते हैं। 'नरेन्द्र! जिसके धनुषका वेग वायु-वेगका समान हैं, हल धारण करनेवाले बलरामजी जिसके सेनापति हैं, वह सवारोंसहित हाथी, घोडे़ रथ और पैदल सैनिकोंसे भरी हुई मथुरा-प्रांतवाली गोपोंकी चतुरंगिणी सेना सदा युद्धके लिये संनद्ध हो आपकी अभीष्ट-सिद्धिके लिये निरन्तर तत्पर रहती हैं। पाण्डुनन्दन! अब आप पापात्माओंके शिरोमणि धृतराष्टपुत्र दुर्योधनको उसको सुहदयों और सम्बन्धियों सहित उसी मार्गपर भेज दीजिये, जहां भौमासुर और शाल्व गये हैं। 'महाराज! आप चाहें तो सभामें जो प्रवेश आपने की हैं, उसीके पालनमें लगे रहें। यदि आपकी आज्ञा हो तो युदवंशी योद्धा आपके समस्त शत्रुओंको मार डालें और हस्तिनापुर नगर आपके शुभागमनकी प्रतीक्षा करता रहे। 'राजन्! आप क्रोध, दीनता और दुःखसे दूर रहकर जहां-जहां आपकी इच्छा हो वहां-वहां घूम लीजिये। तत्पश्चात् शोकरहित हो अपनी प्रसिद्ध, और उत्तम राजधानी हस्तिनापुरमें प्रवेश कीजियेगा। पुरूषोतम भगवान् श्रीकृष्णने अपना मत अच्छी तरह व्यक्त कर दिया था। उसे जानकर महात्मा धर्मराजने भगवान् केशवकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और हाथ जोडकर उनकी ओर देखते हुए कहा।
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